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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे
[चरितमोहणीय-उवसामणा
पदेसग्ग मोकड्डियूणुदयादिगुणसेढीए णिक्खेवं कुणमाणो ताधे चैव पढमट्ठिदिकारगो होतो माणवेदगो होदित्ति एसो एदस्स भावत्थो । संपहि एदस्सेवत्थस्स फुडीकरण - मुत्तरं पबंधमाह
* पढमहिदि करेमाणो उदये पदेसग्गं थोवं देदि, से काले असंखेजगुणं । एवमसंग्वेज्जगुणाए सेढीए जाव पढमट्ठिदिचरिमसमओ त्ति ।
$ २२८. विदियट्ठिदिपदेसग्गमोकड्डियूण माणसंजलणस्स पढमट्ठिदि कुणमाणो देण विष्णासेण करेदित्ति वृत्तं होइ । एत्थ पढमट्ठिदिदीहत्तमं तो मुहुत्तपमाणं होण माणवेदगद्धादो आवलियम्भहियं होदि त्ति घेत्तव्वं । एवं पढमट्ठिदिम्मि तक्कालोकडिदसव्वदव्वस्सा संखेज्जभागमेत्तदव्वं ट्ठिदिं पडि असंखेज्जगुणाए सेढीए णिसिंचिय पुणो सेमदव्यं विदिट्ठी कधं णिसिंचदि ति आसंकाए सुत्तमुत्तरं भणइ -
* विदिट्ठदीए जा आदिट्ठिदी तिस्से असंखेज्जगुणहीणं, तदो विसेसहीणं चेव ।
$ २२९. कुदां ताव विदियट्ठिदीए आदिट्ठिदिम्मि असंखेज्जगुणहीणं णिसिंचदि त्ति वृत्ते वुच्चदे-पढवद्विदीए चरिमणिसेयम्मि गुणसेढिसीसयभावेणावट्ठिदम्मि असंखेज्जा समयपवद्धा निमित्ता । संपहि विदियट्ठिदीए आदिमडिदिम्मि णिसिंचमाण
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रूपसे निक्षेप करता हुआ उसी समय प्रथम स्थितिका करनेवाला होकर मानवेदक होता है यह इस सूत्र का भावार्थ है । अब इसी अर्थको स्पष्ट करनेके लिये आगेके प्रबन्धको कहते हैं
* प्रथम स्थितिको करता हुआ उदयमें अल्प प्रदेशपुञ्जको देता है । तदनन्तर समय में असंख्यातगुणे प्रदेशपुञ्जको देता है । इस प्रकार असंख्यातगुणे श्रेणिक्रमसे प्रथम स्थिति के अन्तिम समयके प्राप्त होने तक देता है।
$ २२८. द्वितीय स्थितिके प्रदेशपुञ्जको अपकर्षित कर मानसंज्वलनकी प्रथम स्थितिको करता हुआ इस रचनाके अनुसार करता है यह उक्त कथनका तात्पर्य है । यहाँ पर प्रथम स्थितिकी लम्बाई अन्तर्मुहूर्तप्रमाण होकर मानसंज्वलनके वेदककालसे एक आवलिप्रमाण अधिक होती है ऐसा ग्रहण करना चाहिए। इस प्रकार प्रथम स्थिति में तत्काल अपकर्षित किये गये सर्व द्रव्यके असंख्यातवें भागप्रमाण द्रव्यको प्रत्येक स्थितिकी अपेक्षा असंख्यातगुणे श्रणिरूप से सिंचित कर पुनः शेष द्रव्यको दूसरी स्थिति में किस प्रकार सिंचित करता है ऐसी आशंका होने पर आगे के सूत्रको कहते हैं
* द्वितीय स्थितिकी जो आदि स्थिति है उसमें असंख्यातगुणे हीन प्रदेश पुंजका सिंचन करता है । उससे आगे विशेष हीन प्रदेशपुञ्जका ही सिंचन करता है ।
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$ २२९. द्वितीय स्थितिकी आदि स्थिति में किस कारणसे असंख्यातगुणे हीन प्रदेशपुञ्जका सिंचन करता है ऐसा कहने पर कहते हैं— क्योंकि प्रथम स्थिति के गुणश्रेणिशीर्ष रूप से अवस्थित अन्तिम निषेकमें असंख्यात समयप्रबद्ध निक्षिप्त करता है । अब द्वितीय स्थिति में