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गाथा १२३ ] चरित्तमोहणीय-उवसामणाए करणकज्जणिदेसो
२२७ तब्बंधवोच्छेदविहाणण्णहाणुववत्तीए एत्थुच्चागोदस्स बंधवोच्छेदाभावे परभवियणामागोदाणं बंधवोच्छेदो त्ति णिद्देसो कथं घडदि त्ति णासंका कायव्वा, गोदसहचारीणं णामपयडीणं चेव गोदववएसं कादण सुत्ते तहा णिद्देसावलंबणादो। संपहि णिहा-पयलाणं बंधवोच्छेदकालो अपुव्वकरणद्धाए सत्तमभागमेतो, परभवियणामाणं बंधवोच्छेदकालो एसो छ-सत्तमभागमेत्तो ति एदस्स णिबंधणमप्पाबहुअमेत्थ कुणमाणो उत्तरं सुत्तपबंधमाह
* अपुव्वकरणपविट्ठस्स जम्हि णिद्दा-पयलाओ वोच्छिण्णाओ सो कालो थोवो।
६६५. कुदो ? अपुव्वकरणद्धाए सत्तमभागपमाणत्तादो। * परभवियणामाणं वोच्छिण्णकालो संखेजगुणो ।
सत्ताईस है ऐसी नामकर्मसम्बन्धी प्रकृतियोंका बन्धविच्छेद हो जाता है। प्रकृतमें यह इस सूत्रके अर्थका तात्पर्य है।
शंका-यहाँपर परभवसम्बन्धी नामकर्म-प्रकृतियोंमें गर्भित यशःकीर्ति नामकर्म-प्रकृतिके भी बन्धबिच्छेदका अतिप्रसंग प्राप्त होता है ?
समाधान-ऐसी आशंका नहीं करनी चाहिए, क्योंकि उसे छोड़कर नामकर्मकी शेष प्रकृतियाँ ही यहाँ पर विवक्षित हैं ?
शंका-यह किस प्रमाणसे जाना जाता है ?
समाधान-क्योंकि सूक्ष्मसाम्पराय गुणस्थानके अन्तिम समयमें उसके बन्धविच्छेदका विधान अन्यथा बन नहीं सकता, इससे जाना जाता है कि यहाँ यशःकीर्तिको छोड़कर बन्धविच्छेदरूप उक्त शेष प्रकृतियाँ ही विवक्षित हैं।
शंका—यहाँपर उच्चगोत्रका बन्धविच्छेद नहीं होता तब सत्रमें परभवियणामा-गोदाणं बंधवोच्छेदो' ऐसे पाठका निर्देश कैसे बन सकता है ?
. समाधान-ऐसी आशंका नहीं करनी चाहिए, क्योंकि गोत्रके साथ रहनेवाली नामकर्मसम्बन्धी प्रकृतियोंकी गोत्रसंज्ञा करके सूत्रमें उस प्रकारके निर्देशका अवलम्बन लिया है। अब निद्रा और प्रचलाके बन्धविच्छेदका काल अपूर्वकरणके कालके संख्यातवें भागप्रमाण है तथा परभवसम्बन्धी नामकर्म-प्रकृतियोंका बन्धविच्छेद काल छह वटे सात भाग प्रमाण है इस प्रकार इसको बतलानेमें निमित्तरूप अल्पबहुत्वको यहाँपर करते हुए आगेके सूत्रप्रबन्धको कहते हैं
* अपूर्वकरण गुणस्थानमें प्रविष्ट हुए संयत जीवके जिस काल में निद्रा और प्रचलाका बन्धविच्छेद होता है वह काल सबसे थोड़ा है।
६५. क्योंकि वह अपूर्वकरणके कालका सातवाँ भागप्रमाण है।
* उससे परभवसम्बन्धी नामकर्म-प्रकृतियोंका बन्धविच्छेद काल संख्यातगुणा है।