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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [चरित्तमोहणी-उवसामणा 5६६. किं कारणं? अपुव्वकरणद्धाए छ-सत्तभागपमाणत्तेण पवाइज्जमाणत्तादो। * अपुवकरणद्धा विसेसाहिया ।
६७. केत्तियमेत्तेण ? सगसत्तमभागमेत्तेण । एत्तो उवरि पुव्वं व डिदिअणुभागधादं कुणमाणो गच्छइ जाव अपुव्वकरणचरिमसमयो त्ति तत्थुद्देसे परूवणामेदपदुप्पायणमिदमाह
* तदो अपुवकरणद्धाए चरिमसमए हिदिखंडयमणुभागखंडयं द्विविधो च समर्ग णिडिवाणि ।
सुगममेदं सुत्तं । * एवम्हि व समए हस्स-रह-भय-दुगुंछाणं बंधवोच्छेवो । ६ ६९. कुदो ? एत्तो उवरिमविसोहीणं तब्बंधविरुद्धसहावत्तादो ।
* हस्स - रह- अरह - सोग - भय - दुगुंछाणं एदेसिं छण्हं कम्माणमुदयवोच्छेदो च।
७०. कुदो ? एत्तो उवरि एदेसिमुदयसत्तीए अच्चंताभावेण णिरुद्धपवेसत्तादो। एत्थ हिदिसंतकम्मपमाणमपुवकरणपढमसमयडिदिसंतकम्मादो संखेज्जगुणहीणमंतोकोडा
$ ६६. क्योंकि अपूर्वकरणके कालके छह वटे सात भागप्रमाण यह काल प्रवाहरूपसे स्वीकृत चला आ रहा है।
* उससे अपूर्वकरणका काल विशेष अधिक है।
६७. कितना अधिक है ? अपने कालका सातवाँ भागमात्र अधिक है। इससे ऊपर पहलेके समान स्थितिकाण्डकघात और अनुभागकाण्डकघातको करता हुआ अपूर्वकरणके अन्तिम समयके प्राप्त होने तक जाता है, इसलिए उस स्थानपर प्ररूपणाभेदका कथन करनेके लिये इस सूत्रको कहते हैं
* तत्पश्चात् अपूर्वकरणके कालके अन्तिम समयमें स्थितिकाण्डक, अनुभागकाण्डक और स्थितिबन्ध एक साथ समाप्त होते हैं।
5 ६८. यह सूत्र सुगम है। * इसी समय ही हास्य, रति, भय और जुगुप्साका बन्धविच्छेद होता है । 5 ६९. क्योंकि इससे उपरिम विशुद्धियाँ उनके बन्धके विरुद्ध स्वभाववाली हैं।
* तथा इसी समय हास्य, रति, अरति, शोक, भय और जुगुप्सा इन छह कर्मोंका उदयविच्छेद होता है।
७०. क्योंकि इससे ऊपर इनकी उदयरूप शक्तिका अत्यन्त अभाव होनेसे इनका उदयरूपसे प्रवेश रुक जाता है । यहाँ पर स्थितिसत्कर्मका प्रमाण अपूर्वकरणके प्रथम समयमें प्राप्त स्थितिसत्कर्मसे संख्यातगुणा हीन अन्तःकोड़ाकोड़ीके भीतर है। इसी प्रकार स्थिति