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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [चरित्तमोहणीय-उवसामणा ६३. एत्थ वि द्विदिखंडयपुधत्तणिदेसेण द्विदिखंडयसहस्सपुधत्तसंगहो पुन्चुगेण णायेणाणुगंतव्वो, अण्णहा अपुव्वकरणकालब्भंतरे संखेज्जसहस्समेत्तट्ठिदिखंडयाणं संखेज्जगुणहीणद्विदिसंतकम्मुप्पत्तिणिबंधणाणमसंभवप्पसंगादो । एसो णिद्दापयलाणं बंधवोच्छेदविसयो अपुवकरणद्धाए सत्तमभागमेत्तो त्ति जइ वि सुत्ते मुत्तकंठमणुवइट्ठो तो वि तस्स तप्पमाणावच्छिण्णत्तं पमाणीभदसुत्ताविरुद्धपरमगुरूवएसबलेण सुणिच्छिदमिदि घेत्तव्वं ।
* तदो अंतोमुहुत्ते गदे परभवियणामागोदाणं बंधवोच्छेदो ।
६४. तदो णिहा-पयलाबंधविच्छेदविसयादो उवरि पुव्वुत्तेणेव कमेण हिदिअणुभागखंडयसहस्साणि अणुपालेमाणस्स हेडिमद्धाणादो संखेज्जगुणमेत्ते अंतोमुहुत्ते गदे ताधे परभवसंबंधेणबज्झमाणाणं णामपयडीणं देवगदि-पंचिंदियजादि-वेउब्बियाहार-तेजा-कम्मइयसरीर-समचउरससंट्ठाण-वेउब्वियाहारसरीरंगोवंग-देवगदिपाओग्गाणुपुव्वि-वण्ण-गंधरस-फास-अगुरुअलहुअ०४-पसत्थविहायगदि-तसादिचउक-थिर-सुभ-सुभग-सुस्सारादेज्जणिमिण-तित्थयरसण्णिदाणमुक्कस्सेण तीससंखावहारियाणं जहण्णदो सत्तवीससंखाविसेसिदाणं बंधवोच्छेदो जादो । एसो एत्थ सुत्तत्थसब्भावो । एत्थ परभवियणामंतब्भूदजसगित्तिणामाए वि बंधवोच्छेदाइप्पसंगो त्ति णासंकणिज्ज, तं मोत्तण सेसाणं चेव णामपयडीणमिह विवक्खियत्तादो । कुदो एवं परिच्छिज्जदे ? सुहुमसांपराइयचरिमसमए
६३. यहाँपर भी स्थितिकाण्डक-पृथक्त्वके निर्देशसे स्थितिकाण्डक सहस्रपृथक्त्वका संग्रह पूर्वोक्त न्यायके अनुसार जानना चाहिए, अन्यथा अपूर्वकरणके कालके भीतर संख्यातगुणे हीन स्थितिसत्कर्मकी उत्पत्तिके कारण ऐसे संख्यात हजार स्थितिकाण्डकोंके असंभव होनेका प्रसंग आता है। निद्रा-प्रचला प्रकृतियोंके बन्धविच्छेदका यह स्थल अपूर्वकरणके कालमें सातवाँ भागमात्र है ऐसा यद्यपि सूत्र में मुक्तकण्ठ नहीं कहा है तो भी वह तत्प्रमाण है यह प्रमाणीभूत सूत्राविरुद्ध परम गुरुके उपदेशके बलसे सुनिश्चित है ऐसा यहाँ ग्रहण करना चाहिए।
___ * तत्पश्चात् अन्तर्मुहूर्त काल जानेपर परभवसम्बन्धी गोत्र संज्ञावाली नामकर्म प्रकृतियोंका बन्धविच्छेद होता है ।
६४. तत्पश्चात् निद्रा और प्रचलाके बन्धविच्छेदके स्थलसे ऊपर पूर्वोक्त क्रमसे ही हजारों स्थितिकाण्डक और अनुभागकाण्डकोंका पालन करनेवाले जीवके अधस्तन स्थानसे संख्यातगुणे अन्तर्मुहूर्त कालके जानेपर तब परभवके सम्बन्धसे बँधनेवाली देवगति, पञ्चेद्रियजाति, वैक्रियिक शरीर, आहारकशरीर, तैजसशरीर, कार्मणशरीर, समचतुस्रसंस्थान,वैक्रियिक शरीर आंगोपांग, आहारकशरीर आंगोपांग, देवगतिप्रायोग्यानुपूर्वी, वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श, अगुरुलघुचतुष्क (अगुरुलघु,उपघात, परघात और उच्छ्वास) प्रशस्तविहायोगति, सादिचतुष्क (त्रस, बादर पर्याप्त और प्रत्येक ) स्थिर, शुभ, सुभग, सुस्वर, आदेय, निर्माण और तीर्थंकर संज्ञावाली, उत्कृष्टरूपसे तीस संख्या जिनकी सुनिश्चित है और जघन्यरूपसे जिनकी संख्या