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गाथा १२३ ] चरित्तमोहणीय-उवसामणाए गाहासुत्तणिद्दसो
२१९ संतपयडीणमजहण्णाणुक्कम्सपदेससंतकम्मिओ ।
४७. के वा अंसे णिबंधदि' ति विहासा-एत्थ पयडिबंधो द्विदिबंधो अणुभागबंधो पदेसबंधो च मग्गियव्वो। तत्थ पयडिबंधमग्गणाए विसुज्झमाणसंजदबंधपाओग्गपयडीणं णिद्देसो कायव्यो । तं जहा-पंचणाणावरण-छदसणावरणसादावेदणीय-चदुसंजलण-पुरिसवेद-हस्स-रदि-भय - दुगुंछ - देवगदि-पंचिंदियजादि-वेउविय-तेजा-कम्मइय० 'आहारसरीरं सिया समउरससंठाण-वेउव्वियअंगोवंग-आहारअंगोवंग सिया देवगदिपाओग्गाणुपुव्वी-वण्णगंध-रस-फास-अगुरुअलहुआदि४-पसत्थविहायगदि-तसादिचउक्क-थिर-सुभ-सुभग-सुस्सरादेज्जजसगित्ति-णिमिण-तित्थयरं सिया उच्चगोद-पंचंतराइयाणि त्ति एदाओ पयडीओ बंधदि । एत्थ णामस्स ३१,३०,२९,२८ एदाणि बंधट्ठाणाणि । एदासिं चेव पयडीणमंतोकोडाकोडिडिदिं बंधदि, अप्पसत्थाणं विट्ठाणाणुभागमणंतगुण हीणं बंधइ, पसत्थाणं चउट्ठाणाणुभागमणंतगुणं बंधइ । है। तथा सभी सत्कर्मप्रकृतियों का अजघन्य-अनुत्कृष्ट प्रदेशसत्कर्मवाला होता है ।
४७. किन कर्मप्रकृतियोंको बाँधता है इस पद की विभाषा-यहाँ पर प्रकृतिबन्ध, स्थितिबन्ध, अनुभागबन्ध और प्रदेशबन्धका अनुसन्धान करना चाहिए। उसमें प्रकृतिबन्धका अनुसन्धान करनेपर उत्तरोत्तर विशुद्धिको प्राप्त होनेवाले संयतके बन्ध योग्य प्रकृतियोंका निर्देश करना चाहिए। यथा-पाँच ज्ञानावरण, छह दर्शनावरण, सातावेदनीय, चार संज्वलन, पुरुषवेद, हास्य, रति, भय, जुगुप्सा, देवगति, पश्चेन्द्रिय जाति, वैक्रियिक शरीर, तैजसशरीर, कार्मणशरीर, स्यात् आहारकशरीर, समचतुरस्रसंस्थान, वैक्रियिकशरीर आंगोपांग, स्यात् आहारकशरीर आंगोपांग, देवगतिप्रायोग्यानुपूर्वी, वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श, अगुरुलघु आदि चार, प्रशस्त विहायोगति, सादि चार, स्थिर, शुभ, सुभग, सुस्वर, आदेय, यश कीर्ति, निर्माण, स्यात् तीर्थंकर, उच्चगोत्र और पाँच अन्तराय इन प्रकृतियोंका बन्ध करता है। यहाँपर नामकर्मके ३१ प्रकृतिक, ३० प्रकृतिक, २९ प्रकृतिक और २८ प्रकृतिक ये चार बन्धस्थान होते हैं। इन्हीं प्रकृतियोंकी अन्तः कोड़ाकोड़ी प्रमाण स्थितिका बन्ध करता है। अप्रशस्त प्रकृतियोंका उत्तरोत्तर अनन्तगुणा हीन द्विस्थानीय अनुभागका बन्ध करता है और प्रशस्त प्रकृतियोंका उत्तरोत्तर चतुःस्थानीय अनुभागका वन्ध करता है।
विशेषार्थ-यद्यपि सातवें गुणस्थानमें देवायु सहित ५९ प्रकृतियोंका बन्ध होता है, परन्तु सातिशय अप्रमत्त संयत देवायुका बन्ध नहीं करता, इसलिए प्रकृतमें देवायुको छोड़कर पूर्वोक्त स्यात् ५८ प्रकृतियोंको, स्यात् ५७ प्रकृतियोंको, स्यात् ५६ प्रकृतियोंको और स्यात् ५५ प्रकृतियोंको बाँधता है । यदि तीर्थकर-आहारकद्विक सहित बन्ध करता है तो ५८ प्रकृतियोंका बन्ध करता है। यदि तीर्थकर प्रकृतिके बिना आहारक द्विक सहित बन्ध करता है तो ५७ प्रकृतियोंका बन्ध करता है। यदि आहारकद्विकको छोड़कर तीर्थकर प्रकृति सहित नामकर्मकी २९ प्रकृतियोंका बन्ध करता है तो ५६ प्रकृतियोंका बन्ध करता है और आहारकद्विक और तीर्थंकर इन तीनोंको छोड़कर बन्ध करता है तो ५५ प्रकृतियोंका बन्ध करता है यहाँ पर ५८ प्रकृतियों में नामकर्मकी ३१ प्रकृतियाँ परिगणितकी गई हैं, ५७ प्रकृतियों में नामकर्मकी ३० प्रकृतियाँ परिगणितकी गई हैं, ५६ प्रकृतियोंमें नामकर्मकी २९ प्रकृतियाँ परिगणित की गई हैं और ५५ प्रकृतियोंमें नामकर्मकी २८ प्रकृतियाँ परिगणित की गई हैं।