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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [ चरित्तमोहणीय - उवसामणा
करणाणं भिण्णकजुप्पायणसत्तिसंभवो विरोहादो त्तिणासंका कायव्वा, लक्खणालावअत्थदो हेडिमोवरिमकरणविसोहीणमणंतगुणहीणाहियभावभेद
गयभेदाभावे वि मस्सियूण पुध पुध कज्जसिद्धीए विरोहाणुवलंभादो ।
$ ३९. एवमेदेसिं लक्खणाणुवादं काढूण संपहि अधापवतकरणपरूवणावसरे उन्हं पट्टणगाहाणमत्थविहासा जहावसर पत्ता कायव्वा त्ति पदुप्पा एमाणो
सुत्तपबंधमुत्तरं भणइ
* तदो अधापवत्तकरणस्स चरिमसमये इमाओ चत्तारि सुत्तगाहाओ । ४०. विहासियव्वाओ त्ति वक्कसेसो । सेसं सुगमं ।
* तं जहा ।
४१. एदं पि सुगमं ।
* कसायजवसामणपट्टवगस्स ॥ १ ॥
आगे करणों में विशुद्धि अनन्तगुणी अधिक होती है इस प्रकार इन करणोंमें जो भेद उपलब्ध होता है उसका आश्रय कर पृथक-पृथक कार्योंकी सिद्धि हो जाती है इसमें कोई विरोध नहीं उपलब्ध होता ।
विशेषार्थ - प्रथमोपशम सम्यक्त्वकी उत्पत्ति, अनन्तानुबन्धीचतुष्ककी विसंयोजना, द्वितीयोपशमकी उत्पत्ति, क्षायिक सम्यक्त्वकी उत्पत्ति, चारित्रमोहकी उपशमना और क्षपणा ये कार्य हैं जिनमें अधःप्रवृत्त आदि तीन करण होते हैं, उनके लक्षण भी सर्वत्र समान हैं । इसी बात को ध्यान में रखकर उक्त शंका-समाधान किया गया है । प्रथमोपशम सम्यक्त्वकी उत्पत्ति के समय इन तीन करणों में सबसे कम विशुद्धि होती है । चारित्रमोहनीयकी क्षपणाके समय इन तीन करणोंमें सबसे अधिक विशुद्धि होती है | मध्यके स्थानोंमें अधिकारी भेदसे यथायोग्य जान लेनी चाहिए ।
$ ३९. इस प्रकार इनके लक्षणोंका अनुवाद करके अब अधःप्रवृत्तकरण के कथन के अवसर पर चारों प्रस्थापक गाथाओंके अर्थका विशेष व्याख्यान क्रमसे अवसर प्राप्त है, ऐसा कथन करते हुए आगे सूत्रप्रबन्धको कहते हैं
* तत्पश्चात् अधःप्रवृत्तकरणके अन्तिम समयमें इन चार सूत्रगाथाओंका व्याख्यान करना चाहिए ।
§ ४०. 'व्याख्यान करना चाहिए' इतने वाक्यशेषकी अनुवृत्ति करनी चाहिए । शेष है
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कथन सुगम
* वह जैसे ।
$ ४१. यह सूत्र भी सुगम है ।
* कषायोंका उवशम करनेवाले जीवका परिणाम कैसा होता है, किस योग, कषाय और उपयोग में 'वर्तमान, किस लेश्यासे युक्त और कौनसे वेदवाला जीव कषायों का उपशम करता है ॥ १ ॥