________________
२१२
जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [चरित्तमोहणीय-उवसामणा विसंजोएंतेण दंसमोहणीयमुवसामेंतेण खतेण वा हेट्ठा सग-सगकरणपरिणामेहि हदं तं चेव कम्मं धादिदावसेसमुवरि वि हम्मदि, ण तत्तो अण्णं किंचि कम्मतरं बंधेणण्णहा वा समुप्पाइय कसायोवसामणो हणदि, तहा संभवाभावादो त्ति ।
$ ३६. संपहि अधापवत्तादीणं तिण्करणाणं जहाकममेत्थ परूवणं कुणमाणो अधाषवत्तकरणविसयमेव ताव परूवणापबंधमाढवेइ 'यथोदेशस्तथा निर्देश' इति न्यायात् ।
* इदाणिं कसाए उवसामेंतस्स जमधापवत्तकरणं तम्हि णत्थि हिदि. घादो अणुभागघादो गुणसेढी च । णवरि विसोहीए अणंतगुणाए वहदि ।
'तमुवरि हम्मदि' इस पाठान्तरका अवलम्बन लेकर यहाँ उक्त सूत्रके अर्थका इस प्रकार समर्थन करते हैं। यथा-अनन्तानुबन्धीचतुष्ककी विसंयोजना करनेवालेने और दर्शनमोहनीयकी उपशमना करनेवाले अथवा झपणा करनेवालेने अपने-अपने करणपरिणामोंके द्वारा जिस कर्मका पहले घात किया, घात करनेसे शेष बचे हुए उसी कर्मका आगे घात करता है, कषायोंका उपशम करनेवाला बन्ध द्वारा या अन्य प्रकारसे उससे कुछ दूसरे कर्मको उत्पन्न कर उसका घात नहीं करता, क्योंकि इस प्रकार सम्भव नहीं है।
विशेषार्थ—यहाँपर 'जं अणंताणुबंधी विसंजोयंतेण' इत्यादि रूपसे कथित उक्त सूत्र में आये हुए 'तमुवरि हदं' पदकी अपेक्षा भेदसे अनेक व्याख्याएँ प्रस्तुत की गई हैं उन सबका मुख्य सार यह है कि अनन्तानुबन्धीचतुष्ककी विसंयोजना करनेवाले जीवने और दर्शममोहनीयकी उपशमना करनेवाले जीवने जो कर्म नष्ट किया वह स्थिति और अनुभागकी अपेक्षा उपरिम भागमें स्थित कर्म ही नष्ट किया, क्योंकि स्थिति और अनुभागकी अपेक्षा उपरिम भागको नष्ट किये बिना अधस्तन या मध्यके भागको नष्ट करना सम्भव नहीं है । तथा जो शेष कर्म बचा है उसको आगे की जानेवाली क्रिया विशेषके द्वारा उत्सारित किया जायगा । यहाँपर 'तमुवरि हद" के स्थान में कुछ आचार्य 'तमुवरि हम्मदि' पाठ स्वीकार करते हैं । इस पाठको स्वीकार कर वे ऐसा अर्थ करते हैं कि अनन्तानुबन्धीकी विसंयोजना और दर्शनमोहनीय की उपशमना या क्षपणा करनेवाले जीवने पहले अपने अपने करण परिणामों के द्वारा जिस कर्मका घात किया कषायोंका उपशम करनेवाला आगे भी घात करनेसे शेष बचे हुए उसी कर्मका घात करता है, क्योंकि यहाँ पर बन्ध या अन्य प्रकारसे दूसरे कर्मको उत्पन्न कर उसका घात करना सम्भव नहीं है ।
३६. अब अधःप्रवृत्त आदि तीन करणोंका क्रमसे यहाँ पर कथन करते हुए अधःप्रवृत्तकरणविषयक प्ररूपणाप्रबन्धको सर्वप्रथम आरम्भ करते हैं, क्योंकि 'जैसा उद्देश होता है उसीके अनुसार निर्देश किया जाता है' ऐसा न्याय है।
___ * इस समय कषायोंका उपशम करनेवाले जीवके जो अधःप्रवृत्तकरण होता है उसमें स्थितिघात, अनुभागघात और गुणश्रेणि नहीं होती। किन्तु प्रति समय अनन्तगुणी विशुद्धिसे बढ़ता रहता है ।