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जयधवलासहिदे कसायहुडे [ चरित्तमोहणीय-उवसामणा परिणामाणं संकमादिकरणणिबंधणाणं वइचित्तियादो वा । तदो इमस्स जीवस्स विज्झादसंकमो चैव समयं पडि विसेसहीणकमेण पयट्टदि त्ति घेत्तव्वं । णाणावरणादिकम्माणमेत्तो हुडि हिदि- अणुभागवादो णत्थि । गुणसेढी पुण संजमपरिणामणिबंधणा अवट्टिदायामेण पयहृदि त्ति घेत्तव्वं, करणपरिणामणिबंधणगलिदसे सगुणसेढीए त्वमिदंसणा दो ।
* पढमदाए सम्मत्तमुप्पादयमाणस्स जो गुणसंकभेण पूरणकालो तदो संखेज्जगुणं कालमिमो उवसंतदंसणमोहणीओ विसोहीए वड्ढदि । ३१. पढमसम्मत्तमुप्पा एमाणस्स जो गुणसंकमकालो तत्तो संखेज्जगुणं कालमेसो गुणसंकमेण विणा वि पडिसमयमणंतगुणाए विसोहिवड्डीए वढदिति सुत्थो ।
* तेण परं हायदि वा वडूढदि वा अवट्ठायदि वा ।
जीवपरिणामोंकी विचित्रतावश यहाँ पर गुणसंक्रम नहीं होता। इसलिए इस जीवके प्रति समय विशेष हीनक्रमसे विध्यासंक्रम ही प्रवृत्त होता है ऐसा ग्रहण करना चाहिए । तथा यहाँ से लेकर ज्ञानावरणादि कर्मोंका स्थितिघात और अनुभागघात नहीं होता । परन्तु संयमरूप परिणामोंके निमित्तसे अवस्थित आयामरूपसे गुणश्रेणि प्रवृत्त रहती है ऐसा यहाँ ग्रहण करना चाहिए, क्योंकि करणपरिणाम निमित्तक गलितशेष गुणश्रेणिका यहाँ पर अन्त देखा जाता है ।
विशेषार्थ — गुणसंक्रम में उत्तरोत्तर गुणित क्रमसे कर्मपुञ्जका संक्रम होता है । किन्तु द्वितीयोपशम सम्यग्दृष्टि के प्रथम समयसे लेकर गुणसंक्रम न होकर विध्यातसंक्रम होता है । इसलिए उत्तोत्तर विशेष हीन क्रमसे मिथ्यात्वके द्रव्यका सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वमें संक्रम होता रहता है। यहाँ ज्ञानावरणादि कर्मोंका स्थितिकाण्डकघात और अनुभागकाण्डकघात भी नहीं होता। साथ ही करणपरिणामनिमित्तक जो गलितशेष गुणश्रेणि रचना प्रवृत्त थी वह अब नहीं होती । हाँ संयमपरिणामनिमित्तक अवस्थित गुणश्रेणि रचना निरन्तर होती रहती है यह उक्त कथनका तात्पर्य है ।
* प्रथम सम्यक्त्वको उत्पन्न करनेवाले जीवका गुणसंक्रमद्वारा जो पूरणकाल प्राप्त होता है उससे संख्यातगुणे कालतक यह उपशान्त दर्मनमोहनीय जीव विशुद्धिके द्वारा बढ़ता रहता है ।
$ ३१. प्रथम सम्यक्त्वको उत्पन्न करनेवाले जीबका जो गुणसंक्रमकाल प्राप्त होता है उससे संख्यातगुणे काल तक यह जीव गुणसंक्रमके बिना भी प्रति समय अनन्तगुणी विशुद्धि की वृद्धि होनेसे बढ़ता रहता है यह इस सूत्रका अर्थ है ।
* उसके बाद परिणामोंके द्वारा कभी घटता है कभी बढ़ता है और कभी अवस्थित रहता है ।