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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [ चरित्तमोहणीय-उवसामणा साणुविद्धपमादणिबंधणत्तादो। एत्थत्तण 'ताव'सद्दो पुणो वि किरियंतराहिमुहत्तमेदस्स जाणावेइ । तं च किरियंतरमेथोवजोगिदसणमोहोवसामणमेवे त्ति तप्परूवणमुत्तरं सुत्तपबंधमाह
* तदो अंतोमुहुत्तण दसणमोहणीयमुवसामेदि, तदो ण अंतरं ।
$ २३. पुणो वि विसोहिमावूरिय अंतोमुहुत्तेण कालेण दंसणमोहणीयं कम्म उवसामेदि ति वुत्तं होइ । दंसणमोहणीयमणुवसामिय वेदगसम्मत्तेणेव उसमसेणिमेमो किण्ण चडाविजदे ? ण, तहासंभवाभावादो । हंदि खइयसम्माइट्ठी उवसमसम्माइट्ठी वा हो दूण चरित्तमोहोवसामणाए पयदि, णाण्णहा त्ति । जइ एवं, सणमोहक्खवणाए वि एत्थ णिद्देसो कायव्यो त्ति णासंकणिजं, तिस्से पुव्वमेव सवित्थर परूविदत्तादो। दंसणमोहोवसामणा वि पुव्वं परूविदा चेव, तदो दाणिमाढवेयव्वा त्ति चे ? ण, अणादियमिच्छाइट्टिपडिबद्धाए तदुवसामणाए पुव्वं परविदत्तादो । ण सा एत्थ पयदोवजोगिणी, तिस्से उवसमसेढिपाओग्गत्तासंभवादो। तदा वेदगसम्माइट्ठि
और अशुभ प्रकृतियोंका ग्रहण करना चाहिए, क्योंकि इन छह प्रकृतियों का बन्ध संक्लेशयुक्त प्रमादनिमित्तक होता है। इस सूत्र में आया हुआ 'ताव' शब्द इस जीवके फिर भी दूसरी क्रियाके अभिमुख होनेका ज्ञान करता है। और वह दूमरी क्रिया प्रकृतरें उपयोगी दर्शनमोह की उपशामना ही है इसलिए उसका कथन करनेके लिये आगेके सूत्रप्रबन्धको कहते हैं --
* पश्चात अन्तर्मुहूर्त कालके द्वारा दर्शनमोहनीय कर्मको उपशमाता है, इसलिए इस समय अन्तर नहीं है।
$ २३. फिर भी विशुद्धिको पूरकर अन्तर्मुहूर्त कालद्वारा दर्शनमोहनीय कर्मको उपशमाता है यह उक्त कथनका तात्पर्य है।
शंका--दर्शनमोहनीयको उपशमाये बिना वेदकसम्यक्त्वसे ही उपशमश्रेणिपर इसे क्यों नहीं चढ़ाया गया ?
समाधान-नहीं, क्योंकि वैसा सम्भव नहीं है। ऐसा नियम है कि क्षायिकसम्यग्दृष्टि या उपशमसम्यग्दृष्टि होकर चारित्रमोहकी उपशामनामें प्रवृत्त होता है, अन्य प्रकारसे नहीं।
शंका-यदि ऐसा है तो दर्शनमोहकी क्षपणाका भी यहाँ पर निर्देश करना चाहिए?
समाधान-ऐसी आशंका नहीं करनी चाहिए, क्योंकि उसका पहले ही विस्तारके साथ कथन कर आये हैं।
शंका-दर्शनमोहकी उपशामनाका कथन भी पहले कर ही आये हैं, इसलिये यहाँ उसका आरम्भ नहीं करना चाहिए ?
. समाधान नहीं, क्योंकि अनादि मिथ्यादृष्टिसे प्रतिबद्ध दर्शनमोहकी उपशामनाका पहले कथन किया है, वह यहाँ प्रकृतमें उपयोगी नहीं है, क्योंकि वह उपशमश्रेणिके योग्य नहीं है।