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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [ चरित्तमोहणीय-उवसामणा
* अणियकिरणे वि एदाणि चेव । अंतरकरणं णत्थि ।
$ २०. अणियट्टिकरणे व पयट्टमाणस्स एदाणि चैवाणंतरपरूविदाणि ठिदिखंडयघादादीणि कज्जाणि होंति, णत्थि तत्थ को वि विसेसो । जहा वुण दंसणमोहोवसामणा अणि किरणम्मि अंतरकरण मत्थि, किमेवमेत्थ वि संभवो, आहो णत्थि ति आसंका निराकरणमतरकरणं णत्थि त्ति पदुप्पाइदं । कुदो तदसंभवणिण्णयो चे ? दंसणचरित्त मोहोवसामणाए चरित्तमोहक्खवणाए च अंतरकरणस्स संभवो णाण्णत्थे ति नियमदंसणादो । संपहि अणियट्टिपरिणामेहिं ट्ठिदि-अणुभागखंडय सहस्साणि कुणमाणो तदद्धार संखेजेसु भागे गदेसु तदो विसेसघादवसेण अनंताणुबंधीणं ठिदिसंतकम्ममसणिट्ठिदिबंघेण समाणं करेदि । तदो संखेजेहिं ठिदिखंडय सहस्से हिं चउरिंदियट्ठिदिबंधसमाणं । एवं तीइंदिय - वेइंदिय एइंदियट्ठिदिबंधेण समाणं काढूण पुणो पलिदोवममेतद्विदितकम्मं ठवेण तदो सेसस्स पंखेज्जे भागे ट्ठिदिखंडय मागाएंतो दूराव किहिमेत मताणुबंधीणं द्विदिसंतकम्मं काढूण तदो सेसस्स असंखेज्जे भागे घादेंतो संखेज्जेहिं ट्ठिदिखंडयसहस्सेहिं गदेहिं उदयावलियबाहिरं सव्त्रमणंताणुबंधिट्ठिदिसंतकम्मं अणियट्टिकरणचरिमसमये पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागमेत्तायामचरिम
* अनिवृत्तिकरणमें भी ये ही कार्य होते हैं । अन्तरकरण नहीं होता |
$२० अनिवृत्तिकरण में प्रवर्तमान हुए जीवके भी अनन्तर पूर्व कहे गये ये ही स्थितिकाण्डकघात आदि कार्य होते हैं, वहाँ अन्य कोई विशेषता नहीं है । परन्तु दर्शनमोहकी उपशामना में जिस प्रकार अनिवृत्तिकरणमें अन्तरकरण होता है, उसप्रकार क्या यहाँ पर भी सम्भव है, अथवा सम्भव नहीं है ऐसी आशंका होनेपर निराकरण करनेके लिये 'अन्तरकरण नहीं होता यह वचन कहा है ।
शंका—वहाँ अन्तरकरण सम्भव नहीं है इसका निर्णय किस प्रमाणसे किया जाता है ? समाधान- _क्योंकि दर्शन- चारित्र मोहोपशामना और चारित्रमोहक्षपणामें अन्तरकरण सम्भव है, अन्यत्र नहीं यह नियम देखा जाता है। इससे निर्णय होता है कि अनन्तानुबन्धियोंकी विसंयोजनामें अन्तरकरण सम्भव नहीं है ।
अब अनिवृत्तिकरणरूप परिणार्मोके द्वारा हजारों स्थितिकाण्डक और हजारों अनुभागकाण्डकों को करता हुआ उस कालके संख्यात बहुभागके जानेपर पश्चात् विशेष घातवश अनन्तानुबन्धियोंका स्थितिसत्कर्म असंज्ञियोंके स्थितिबन्धके समान करता है । उसके बाद संख्यात हजार स्थितिकाण्डकों के होनेपर स्थितिसत्कर्म चतुरिन्द्रिय जीवोंके स्थितिबन्धके समान करता है। इस प्रकार त्रीन्द्रिय, द्वीन्द्रिय और एकेन्द्रिय जीवोंके स्थितिबन्धके समान करके पुनः पल्योपमप्रमाण स्थितिसत्कर्मको स्थापित कर तत्पश्चात् शेष स्थिति के संख्यात बहुभागत्रमाण tratosesो ग्रहण करता हुआ अनन्तानुबन्धियोंका दूरापकृष्टिप्रमाण स्थिति सत्कर्म करके पश्चात् शेष स्थितिके असंख्यात बहुतभागका घात करता हुआ संख्यात हजार स्थितिकाण्डको के जाने पर अनन्तानुबन्धियोंके उदयावलि बाह्य समस्त स्थितिसत्कर्मको अनिवृत्तिकरण के