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जयधवलासहिदे कसाथपाहुडे [चरित्तमोहणीय-उवसामणी * तं जहा!
१६. सुगमं । * अधापवत्तकरणमपुवकरणमणियट्टिकरणं च ।
$ १७. एदाणि तिण्णि वि करणाणि कादणाणताणुबंधिणो विसंजोएदि ति भणिदं होइ । एदेसिं करणाणं लक्खणं जहा सणमोहोवसामणाए परूविदं तहा णिरवसेसमेत्थाणुगंतव्वं, विसेसाभावादो । तदो अधापवत्तकरणविसोहीए अंतोमु हुत्तं विमुज्झमाणस्स द्विदिघादादिसंभवो णत्थि, केवलमणंतगुणाए पडिसमयं विसुज्झमाणो गच्छदि त्ति जाणावणहमिदमाह
* अधापवत्तकरणे णत्थि द्विविधादो वा अणुभागघादो वा गुणसेढी वा गुणसंकमो वा।
१८. कुदो एदेसिमेत्थासंभवो चे? ण, अधापवत्तकरणविसोहीणं सव्वत्थ द्विदि-अणुभागखंडयगुणसेढिणिजरादीणमकारणत्तब्भुवगमादो। पुणो किमेदाहिं कीरमाणं फलमिदि चे? द्विदिबंधोसरणसहस्साणि असुहाणं कम्माणमणंतगुणहाणीए पडिसमयमणुभागबंधोसरणं सुहाणमणंतगुणवड्डीए चउट्ठणाणुभागबंधोत्ति एवं फलमेत्थ
* वे जैसे । $ १६. यह सूत्र सुगम है। * अधःप्रवृत्तकरण, अपूर्वकरण और अनिवृत्तिकरण ।
$ १७. इन तीनों ही करणोंको करके अनन्तानुबन्धियोंकी विसंयोजना करता है यह उक्त कथनका तात्पर्य है। इन करणोंका लक्षण दर्शनमोहोपशामनामें जिस प्रकार कह आये हैं उस प्रकार पूरी तरह यहाँ जानना चाहिए, क्योंकि कोई विशेषता नहीं है । इसलिए अधःप्रवृत्तकरणरूप विशुद्धिद्वारा अन्तर्मुहूर्त कालतक विशुद्ध होनेवाले जीवके स्थितिघात आदि सम्भव नहीं हैं, प्रति समय केवल अनन्तगुणी विशुद्धिसे विशुद्ध होता जाता है इस बातका ज्ञान करानेके लिए इस सूत्रको कहते हैं
* अधःप्रवृत्तकरणमें स्थितिघात, अनुभागघात. गुणश्रेणि और गुणसंक्रम नहीं होता।
६१८. शंका-ये यहाँ पर असम्भव क्यों हैं ?
सभाधान नहीं, क्योंकि अधःप्रवृत्तकरणरूप विशुद्धियोंको सर्वत्र स्थितिकाण्डक, अनुभागकाण्डक और गुणश्रेणिनिर्जरा आदिके कारणरूपसे नहीं स्वीकार किया गया है।
शंका-तो इनके द्वारा किया जानेवाला कार्य क्या है ? समाधान-हजारों स्थितिबन्धापसरण, अशुभ कर्मोंका प्रति समय अनन्तगुणी हानि