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गाथा ११५] एयंताणुवडिसंपण्णस्स संजदस्स अपुव्वकरणसण्णा पादो वा । गुणसेढी पुण जाव संजदो ताव अवट्ठिदायामा होदूण पयट्टदे। णवरि विसुज्झतो असंखेजगुणं वा संखेजगुणं वा संखेजदिमागुत्तरं वा असंखेज्जदिभागुत्तरं वा दव्वमोकड्डियण गुणसेढिं करेदि । संकिलिम्संतो एवं चेव गुडहीणं वा विसेसहीणं वा दव्वमोकड्डियूण गुणसेढिं करेदि। अवट्ठिदपरिणामो अवद्विदं चेव करेदि, परिणामाणुसारीए गुणसेढिणिज्जराए तव्वड्डि-हाणिवसेणेव पवुत्तीए बाहाणुवलंभादो । एदं च सव्वमणेणावहारिय इदमाह____ * एयंतरवड्डीदो से काले चरित्तलद्धीए सिया वड्डेज वा हाएज वा अवहाएज वा।
२१. सत्थाणपदिदस्स अधापवत्तसंजदस्स गुणसेढिणिज्जराविणाभाविसंजमलद्धीए विसोहि-संकिलेसवसेण वड्डि-हाणि-अवट्ठाणसिद्धीए विरोहाणुवलंभादो ।
२२. एवमेदं परूवणं समाणिय संपहि पदपडिवूरणबीजपदावलंबणेण एत्थ अप्पाबहुअं कायव्वमिदि जाणावेमाणो उत्तरं पबंधमाह
इस कालके समाप्त होने पर तत्पश्चात् अधःप्रवृत्तसंयत होता है। वहाँ स्थितिघात और अनुभागघात नहीं है । परन्तु जब तक संयत है तब तक अवस्थित आयामवाली गुणश्रेणि होकर प्रवृत्त होती है। इतनी विशेषता है कि विशुद्धिको प्राप्त होता हुआ असंख्यातगुणे, संख्यातगुणे, संख्यातवें भाग अधिक या असंख्यातवें भाग अधिक द्रव्यका अपकर्षण कर गुणश्रेणि करता है। संक्लेशको प्राप्त होता हुआ इसी प्रकार गुणहीन या विशेष हीन द्रव्यका अपकर्षण कर गुणश्रेणि करता है। तथा अवस्थित परिणामवाला जीव अवस्थित ही गुणश्रेणि करता है। परिणामोंके अनुसार होनेवाली गुणश्रेणिनिर्जराके परिणामोंकी वृद्धिहानिवश ही प्रवृत्ति होनेमें बाधा नहीं पाई जाती । इस प्रकार इस सबको मनसे निश्चित कर इस सूत्रको कहते हैं
___ * एकान्तानुवृद्धिके पश्चात् अनन्तर कालमें चारित्रलब्धिवश कदाचित् वृद्धिको प्राप्त होता है, कदाचित् हानिको प्राप्त होता है और कदाचित् अवस्थित रहता है । - $२१. स्वस्थानपतित अधःप्रवृत्तसंयतके गुणश्रेणिनिर्जराकी अविनाभावी संयमलब्धिसम्बन्धी विशुद्धि-संक्लेशवश वृद्धि, हानि और अवस्थानकी सिद्धि होनेमें विरोध नहीं पाया जाता।
विशेषार्थ-आशय यह है कि अप्रमादभावपूर्वक संयमकी प्राप्ति होने पर अन्तर्मुहर्त काल तक संयमसम्बन्धी परिणामोंमें उत्तरोत्तर वृद्धि होती रहती है, इसलिए उस समय होनेवाली निर्जरा उत्तरोत्तर असंख्यात गुणितक्रमसे ही होती है। किन्तु उसके बाद इस जीवके स्वस्थानपतित अधःप्रवृत्तसंयत होनेपर जिस क्रमसे संक्लेश और विशुद्धिवश संयमरूप परिणामोंमें वृद्धि, हानि और अवस्थान होता है उसी क्रमसे निर्जराका भी क्रम बदलता रहता है । विशेष निर्देश पूर्व में किया ही है।
६२२. इस प्रकार इस प्ररूपणाको समाप्त कर अब पदपूर्तिस्वरूप बीजपदोंका अवलम्बन लेकर यहाँ पर अल्पबहुत्व करना चाहिए इस बातका ज्ञान कराते हुए आगेके प्रबन्धको कहते हैं