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गाथा ११५ ]
संजम पडिवत्तिसमये कज्जविसेसपरूवणा
विदा, तहा एत्थ वि परूवेयव्वा, तिस्से सव्वत्थ पडिसेहाभावादो |
$ १३. 'किं ट्ठिदियाणि कम्माणि कं ठाणं पडिवज' ति विहासा | ठिदिघादो ताव संखे भागे घादेदूण संखेज्जदिभागं पडिवज्जदि, इच्चादि उवसामगभंगेण वत्तव्वं, विसेसाभावादो | वेदगसम्माइट्ठिस्स' वि असंजदस्स संजमलंमे वट्टमाणस्स पयदगाहत्थ - विहासा जाणिय कायव्वा ।
$ १४ एवमेदासु गाहासु सवित्थरमेत्थ विहासिदासु तदो उत्तरं परूवणामना जिस प्रकार संयमासं यमलब्धि में कही है उसी प्रकार यहाँ भी कहनी चाहिए, क्योंकि उसका सर्वत्र प्रतिषेध नहीं है ।
विशेषार्थ – संयमलब्धि क्षायोपशमिक भाव है और इसकी प्राप्तिके पूर्व केवल अधःप्रवृत्तकरण और अपूर्वकरण ये दो करण होना ही सम्भव हैं, अतः यहाँ न तो किसी कर्मका अन्तरकरण होता है और न अन्तरकरणपूर्वक होनेवाली उपशामना ही होती है । इतना अवश्य है कि अनन्तानुबन्धीचतुष्क, अप्रत्याख्यानावरणचतुष्क और प्रत्याख्यानावरणचतुष्क इन बारह कर्मप्रकृतियोंके अनुदयलक्षण उपशमके होने पर संयमलब्धिकी प्राप्ति होती है, इसलिए यहाँ सर्वदा अनुदय-उपशामना बन जाती है, उसका निषेध नहीं है। इस लब्धि में यद्यपि चार संज्वलन और नौ नोकषायोंका उदय रहता है । परन्तु वह सर्वघाति न होकर देशघातिस्वरूप होता है, इसलिए उसके होनेमें कोई विरोध नहीं है । यह प्रकृति अनुदयोपशामनाका स्पष्टीकरण है । स्थिति, अनुभाग और प्रदेशानुदयोपशामनाका स्पष्टीकरण जानकर कर लेना चाहिये ।
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$ १३. 'किं द्विदियाणि कम्माणि कं ठाणं पडिवज्जइ' इसकी विभाषा । स्थितिघात यथा - संख्यात बहुभागका घात कर संख्यातवें भागको प्राप्त होता है इत्यादिका जिस प्रकार दर्शनमोहके उपशामककी अपेक्षा कथन कर आये हैं उसी प्रकार यहाँ पर भी कथन करना चाहिये, क्योंकि उससे इसमें कोई विशेषता नहीं है । तथा यदि वेदकसम्यग्दृष्टि असंयत भी संयमको प्राप्त कर रहा है तो उसके प्रकृत गाथाके अर्थकी विभाषा जानकर करना चाहिए ।
विशेषार्थ — यहाँ अधः प्रवृत्तकरण और अपूर्वकरणपूर्वक जिस संयमकी प्राप्ति होती उसका प्रकरण है। जो मिध्यादृष्टि जीव प्रथमोपशम सम्यक्त्वके साथ संयमको प्राप्त करता है. उसका यहाँ प्रकरण नहीं है । यहाँ मुख्यरूपसे वेदकप्रायोग्य कालके भीतर जो मिथ्यादृष्टि जीव अधःप्रवृत्तकरण और अपूर्वकरणपूर्वक संयमको प्राप्त करता है उसका प्रकरण है, अतः ऐसे जीवके अपूर्वकरणके प्रथम समय में आयुकर्मके अतिरिक्त अन्य सात कमका जितना स्थितिसत्त्व शेष हो उसका हजारों स्थितिकाण्डकोंके द्वारा घात होकर अपूर्वकरण के अन्तिम समय में संख्यातवें भागप्रमाण स्थितिसत्त्व शेष रहना आगमसिद्ध ही है । मूलमें इसी तथ्यको स्पष्ट किया गया है । शेष व्याख्यान आगमसे जान लेना चाहिए ।
$ १४. इस प्रकार इन गाथाओंका यहाँ पर विस्तारपूर्वक व्याख्यान कर देने पर
१. ताड़पत्र मूलप्रती वेदगसम्माइट्ठिस्स इत्यस्मिन् स्थले 'गसम्माइट्ठि' इति पाठः त्रुटितः ।