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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [संजमासंजमलद्धी ७. 'काणि वा पुव्वबद्धाणि' त्ति विहासा । एत्थ पयडिसंतकम्मं डिदिसंतकम्ममणुभागसंतकम्मं पदेससंतकम्मं च मग्गियव्वं, तम्मग्गणाए च दंसणमोहोवसामगभंगो । णवरि सम्मत्त-सम्मामिच्छत्ताणं पि संतकम्मिओ ति वत्तव्वं । आउअस्स एका वा दो वा पयडीओ संतकम्मं, मणुसाउअस्स धुवभावेण, देवाउअस्स वि परभवियाउअबंधवसेण कहिं पि संभवदंसणादो।।
८'के बा असे णिबंधदि' त्ति विहासा । एत्थ पयडि-ट्ठिदि-अणुभागपदेसबंधा मग्गियव्वा । तम्मग्गणाए च उवसामगभंगादो पत्थि णाणत्तं । णवरि पढमदंडए णिहिट्ठाणं चेव पयडीणमेत्थ बंधसंभवो वत्तन्वो, सेसाणमेत्थ बंधासंभवादो।
६९. 'कदि आवलियं पविसंति' त्ति विहासा। मूलपयडीओ सव्वाओ होता है तथा तेज, पद्म और शुक्ल इन तीनोंमेंसे कोई एक लेश्या होती है जो नियमसे वर्धमान होती है। वेद भी तीनोंमेंसे कोई एक होता है। यहाँ वेदसे तात्पर्य भावभेदसे है।
६७. 'काणि वा पुश्वबद्धाणि' इस पदकी विभाषा--यहाँ पर प्रकृतिसत्कर्म, स्थितिसत्कर्म, अनुभागसत्कर्म और प्रदेशसत्कर्मकी मार्गणा करनी चाहिये और उनकी मार्गणाका भंग दर्शनमोहके उपशामकके समान है। इतनी विशेषता है कि सम्यक्त्व और सम्यग्मिध्यात्वका भी सत्कर्मवाला है ऐसा कहना चाहिये। आयुकी एक या दो प्रकृतियोंका सत्त्व है। उनमेंसे मनुप्यायुका ध्रुवरूपसे सत्त्व है, देवायुका भी परभवसम्बन्धी आयुबन्धके कारण किसीमें सम्भव देखा जाता है।
विशेषार्थ-पहले दर्शनमोहोपशामना अनुयोगद्वारमें पूर्वबद्ध कितने कर्मोंकी सत्ता होती है यहाँ बतला आये हैं उसी प्रकार यहाँ भी समझ लेना चाहिये । यहाँ इतना विशेष जानना चाहिये कि जो वेदकप्रायोग्य मिथ्यादृष्टि जीव संयमके अभिमुख होते हैं उनके सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वको सत्ता नियमसे होती है। तथा उनमेंसे किन्हींके आहारक शरीरचतुष्ककी भी सत्ता पाई जाती है।
६८. 'के वा अंसे णिबंधदि' इस पदकी विभाषा। यहाँपर प्रकृतिबन्ध, स्थितिबन्ध, अनुभागबन्ध और प्रदेशबन्धकी मार्गणा करनी चाहिए और उनकी मार्गणा उपशामकके समान है, उससे कोई भेद नहीं है । इतनी विशेषता है कि प्रथम दण्डकमें निर्दिष्ट प्रकृतियोंका ही यहाँपर बन्ध सम्भव है ऐसा कहना चाहिए, क्योंकि शेषका यहाँपर बन्ध सम्भव नहीं है।
विशेषार्थ-प्रथम दण्डकको ये प्रकृतियाँ हैं-५ ज्ञानावरण, ९ दर्शनावरण, सातावेदनीय, मिथ्यात्व, १६ कषाय, पुरुषवेद, हास्य, रति, भय, जुगुप्सा, देवगति, पञ्चेन्द्रियजाति, वैक्रियिकशरीर, तैजसशरीर, कार्मणशरीर, समचतुरस्रसंस्थान, वैक्रियिकशरीरआंगोपांग, वर्णादिचतुष्क, देवगतिप्रायोग्यानुपूर्वी, अगुरुलघुआदि चतुष्क, प्रशस्त विहायोगति, त्रसादिचतुष्क, स्थिरादिषट्क, निर्माण, उच्चंगोत्र और ५ अन्तराय । स्थितिबन्ध आदिका कथन उपशामकके समान जानना चाहिए ।
६९. 'कदि आवलियं पविसंति' इस पदकी विभाषा। मूल प्रकृतियाँ सब प्रवेश करती