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गाथा ११५]
संजमपडिवत्तिपरूवणा * संजमं पडिवजमाणस्स परिणामो केरिसो भवे ॥१॥ काणि वा पुव्वद्धाणि॥२॥ के अंसे झीयदे पुवं०॥३॥ किं हिदियाणि कम्माणि ॥४।।
६. संपहि एदाप्ति गाहाणं एत्थ विहासाए कीरमाणाए उवसमसम्मत्तेण सह संजमं पडिवजमाणमिच्छाइट्ठिस्स सम्मत्तुप्पत्तीए एदासिं विहासा कया तहा णिरवसेसमेत्थ वि कायव्वो, विसेसाभावादो। णवरि मणुससंबंधिणीणमेव बंधोदयोदीरणपयडीणमणुगमो एत्थ कायव्यो, तदण्णत्थ संजमुप्पत्तीए संभवाभावादो । अण्णो वि विसेसो जाणिय वत्तव्यो। तदो वेदगपाओग्गमिच्छाइद्विस्स वेदगसम्माइहिस्स वा संजमं पडिवजमाणस्स पयदगाहत्थविहासाए किंचि विसेसाणुगमं कस्सामो। तं जहा-वेदगपाओग्गमिच्छाइद्विस्स ताव पढमगाहत्थविहासाए दंसणमोहोवसामगभंगो चेव कायव्वो । णवरि जोगे त्ति विहासाए दंसणमोहक्खवणभंगो ।
* वेदकप्रायोग्य मिथ्यादृष्टिके या वेदक सम्यग्दृष्टिके संयमको प्राप्त होते समय परिणाम कैसा होता है, किस योग, कषाय और उपयोगमें विद्यमान उसके कौन सी लेश्या और वेद होता है ॥ १ ॥ पूर्वबद्ध कर्म कौन-कौन हैं, वर्तमानमें किन-किन कर्मोको बाँधता है, कितने कर्म उदयावलिमें प्रवेश करते हैं और यह किन कर्मोंका प्रवेशक होता है ? ॥ २॥ पूर्व ही बन्ध और उदयरूपसे कौनसे कर्मांश क्षीण होते हैं आगे चलकर यह जीव किसी कर्मका न तो अन्तर करता है और न किसी कर्मका उपशामक होता है ।।। ३ ॥ वह किस स्थितिवाले कर्मोंका तथा किन अनुभागोंमें स्थित कर्मोंका अपवर्तन करके शेष रहे उनके किस स्थानको प्राप्त होता है ? ॥ ४ ॥
६. अब इन गाथाओंकी यहाँ पर विभाषा करने पर उपशमसम्यक्त्वके साथ संयमको प्राप्त होनेवाले मिथ्यादृष्टिके सम्यक्त्वकी उत्पत्ति अनुयोगद्वार में इनकी जैसी विभाषा कर आये हैं उसी प्रकार पूरी यहाँ भी करनी चाहिए, क्योंकि उससे इसमें कोई भेद नहीं है। इतनी विशेषता है कि यहाँ पर मनुष्यसम्बन्धी ही बन्ध, उदय और उदीरणारूप प्रकृतियोंका अनुगम करना चाहिए, क्योंकि उससे अन्यत्र संयमकी उत्पत्ति संभव नहीं है। अन्य जो भी विशेष है उसका जानकर कथन करना चाहिये। इसलिये संयमको प्राप्त होनेवाले वेदकप्रायोग्य मिथ्यादृष्टिके और वेदकसम्यग्दृष्टिके प्रकृत गाथाओंके अर्थका विशेष व्याख्यान करने पर जो कुछ विशेष है उसका अनुगम करेंगे। यथा-सर्वप्रथम वेदकप्रायोग्य मिथ्यादृष्टिके प्रथम गाथाके अर्थका विशेष व्याख्यान करने पर दर्शनमोहके उपशामकके समान ही व्याख्यान करना चाहिये। इतनी विशेषता है कि 'जोगे ति' इस पदका विशेष व्याख्यान करने पर दर्शनमोहक्षपणाके समान व्याख्यान करना चाहिये।
विशेषार्थ—जो वेदक प्रायोग्य मिथ्यादृष्टि जीव संयमको प्राप्त करता है उसका परिणाम विशुद्धतर होता है, औदारिक काययोग, चार मनोयोग और चार वचनयोग इनमेंसे कोई एक योग होता है, चारों कषायोंमेंसे हीयमान कोई एक कपाय होती है, साकार उपयोग