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गाथा ११५ ]
संजदासंजदे पदविसेसाणमप्पा बहुअपरूवणा
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१०४. तं कस्स १ तिरिक्खमिच्छाइट्ठिस्स तप्पा ओग्गविसुद्धीए संजमा संजमं पडवण्णस्स विदियसमये भवदि । जादिविसेसदो च पुव्विल्लादो अनंतगुणं जादं । * तिरिक्खजोणियस्स अपडिवजमाण - अपडिवदमाणगस्स उक्कस्सयं लट्ठिाणमतगुणं ।
$ १०५. तं कस्स १ सत्थाणे चैव सव्ववियुद्धस्स भवदि । सेसं सुगमं ।
* मणुसस्स अपडिवजमाण- अपडिवमाणयस्स उक्कस्सयं लद्धिट्ठाणमतगुणं ।
$ १०६. तं कस्स १ संजमा हिमुहस्स सव्वविसुद्धस्स चरिमसमए होइ । एवमप्पा हुए समत्ते लद्धिट्ठाणपरूवणा (समत्ता भवदि । संपहि संजमासं जमलद्धीए ओदयियादिभावे कदमो भावो होइ ति सिस्साहिष्पायमासंकिय तणिण्णयकरण - मुत्तरं सुत्तपबंधमाह -
* संजदासंजदो अपच्चक्खाणकसाए ण वेदयदि ।
$ १०४. शंका - वह किसके होता है ?
समाधान — तिर्यञ्च मिध्यादृष्टिके तत्प्रायोग्य विशुद्धिसे संयमासंयमको प्राप्त होनेके दूसरे समय में होता है और यह जातिविशेषके कारण पूर्वके लब्धिस्थानसे अनन्तगुणा हो गया है।
* उससे अप्रतिपद्यमान - अप्रतिपतमान तिर्यञ्चयोनि जीवका उत्कृष्ट लब्धिस्थान अनन्तगुणा है ।
$ १०५. शंका - वह किसके होता है ?
समाधान — सर्वविशुद्ध तिर्यव के स्वस्थानमें ही होता है। शेष कथन सुगम है ।
_* उससे अप्रतिपद्यमान - अप्रतिपतमान मनुष्यका उत्कृष्ट लब्धिस्थान अनन्तगुणा है।
$ १०६. शंका- वह किसके होता है ?
समाधान-संयम के अभिमुख हुए सर्वविशुद्ध मनुष्यके अन्तिम समयमें होता है ।
इस प्रकार अल्पबहुत्वके समाप्त होनेपर लब्धिस्थानप्ररूपणा समाप्त होती है । अब औदयिक आदि भावोंमेंसे संयमासंयमलब्धिसम्बन्धी कौनसा भाव है इस प्रकार शिष्य के अभिप्रायको आशंकारूपमें स्वीकार कर उसका निर्णय करनेके लिये आगेके सूत्रप्रबन्धको कहते हैं
* संयतासंयत जीव अप्रत्याख्यान कषायको नहीं वेदता ।
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