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गाथा ११५ ]
संजदासंजदे पदविसेसाणमप्पाबहुअपरूवणा
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* जहणणयं लद्धिट्ठाणमणताणि फद्दयाणि ।
$ ८४. एदेण सुत्तेण असंखेजलोगमेत्ताणं संजमामंजमलद्भिट्ठाणाणं जं जहणयं लट्ठिाणं तस्स सरूवणिद्देसो कओ त्ति दट्ठव्वो । तं कथं ? एदं जहण्णाणमणतेहि अविभागपडिच्छेदेहिं सव्वजीवेहिं अनंतगुणमेत्तेहिं णिफण्णं । एदे चैव अनंता अविभागपडिच्छेदा अनंताणि फहयाणि त्ति भण्णंते, फद्दय सदस्साविभागपलिच्छेदवाचित्तेण इह विवक्खियत्तादो । तदो अणताणि फद्दयाणि एवंविहाविभागपलिच्छेदसरुवाणि घेत्तणेदं जदण्णलद्धिट्ठाणं होदि त्ति भणिदं सुत्तयारेण । अहवा एवं जहण्णयं लद्भिट्ठाणं मिच्छत्तपडिवादाहिमुह संजदासंजदचरिमसमए aari कसायाणुभागफद्दयाणमुदएण जणिदमिदि कज्जे कारणोवयारेण अनंताणि फयाणि ति भण्णदे, अण्णहो तस्स सरूवणिरूवणोवायाभावादो ।
$ ८५ एवमेदस्स सव्वजहण्णलद्धिद्वाणस्स सरूवणिरूवणं काढूण संपहि * जघन्य लब्धिस्थान अनन्त स्पर्धकस्वरूप है ।
८४. इस सूत्र द्वारा असंख्यात लोकप्रमाण संयमासंयमलब्धिस्थानोंसम्बन्धी जो जघन्य लब्धिस्थान है उसके स्वरूपका निर्देश किया गया है ऐसा जानना चाहिए ।
शंका- वह कैसे ?
समाधान- यह जघन्य स्थान सब जीवोंसे अनन्तगुणे अनन्त अविभागप्रतिच्छेदोंसे निष्पन्न हुआ है । ये ही अनन्त अविभागप्रतिच्छेद अनन्त स्पर्धक कहे जाते हैं, क्योंकि यहाँपर स्पर्धक शब्द अविभागप्रतिच्छेदका वाची स्वीकार किया गया है । इसलिये इसप्रकारके अविभागप्रतिच्छेदस्वरूप अनन्त स्पर्धकोंको ग्रहणकर यह जघन्य लब्धिस्थान होता है यह सूत्रकारने कहा है । अथवा यह जघन्य लब्धिस्थान मिध्यात्वमें गिरनेके सन्मुख हुए संयतासंयत के अन्तिम समय में कषायोंके अनन्त अनुभागस्पर्धकोंके उदयसे उत्पन्न हुआ है. इसप्रकार कार्यमें कारणके उपचार से अनन्त स्पर्धक ऐसा कहा गया है, अन्यथा उसके स्वरूपके निरूपणका दूसरा उपाय नहीं पाया जाता ।
विशेषार्थ – जितने भी संयमासंयमलब्धिस्थान हैं वे सब तीन प्रकारके हैं । उनमें से कुछ तो ऐसे हैं जो मात्र संयमासंयमलब्धिसे गिरते समय ही होते हैं। इनकी प्रतिपात संयमासंयमलब्धिस्थान संज्ञा है । कुछ ऐसे हैं जो संयमासंयमको प्राप्त करते समय प्राप्त होते हैं। इनकी प्रतिपद्यमान संयमासंयमलब्धिस्थान संज्ञा है और बहुत कुछ ऐसे हैं जो या तो संयमासंयम में अवस्थितिके कालमें होते हैं या संयमासंयमसे अप्रमत्तसंयतभावको प्राप्त होनेवालेके होते हैं । इनकी अप्रतिपात - अप्रतिपद्यमान संयमासंयमलब्धिस्थान संज्ञा है । इन्हीं तीनों प्रकारके संयमासंयम लब्धिस्थानोंके अल्पबहुत्वका निरूपण करते हुए यहाँ पर जो सबसे जघन्य संयमासंयम लब्धिस्थान है उसके स्वरूपका निरूपण किया गया है । शेष कथन स्पष्ट ही है ।
$ ८५. इसप्रकार इस सबसे जघन्य लब्धिस्थानके स्वरूपका कथनकर अब इससे