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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [संजमसंजमालदी कीरमाणकजमेदपदुप्पायणट्ठमुत्तरो सुत्तपबंधो___* ताधे अपुव्वं हिदिखंडयमपुव्यमणुभागखंडयमपुव्वं द्विदिषधं च पट्ठवेदि।
३५. कुदो वुण करणपरिणामेसु उवसंहरिदेसु द्विदिखंडयादीणमेत्थ संभवो त्ति णासंका कायव्वा, करणपरिणामाभावे वि एयंताणुवड्डिदसंजमासंजमपरिणामपाहम्मेण ठिदिघादाणमेत्थ पवुत्तीए विरोहाभावादो।
$ ३६. संजमासंजमगुणमाहप्पेण गुणसेढिणिजरा वि एत्थ पारद्धा त्ति पदुप्पायणफलमुत्तरसुतं
___ * असंखेज्जे समयपबद्ध' ओकड्डियूण गुणसेढीए उदयावलियबाहिरे रचेदि।
६३७ तं जहा—संजमासंजमगुणं पडिवण्णपढमसमए चेव उवरिमठिदिदव्वसंयमसम्बन्धी विशुद्धिसे वृद्धिको प्राप्त होनेवाले जीवके उस अवस्थामें किये जानेवाले कार्योंके भेदका कथन करनेके लिये आगेका सूत्रप्रबन्ध आया है___* उस समय वह अपूर्व स्थितिकाण्डक, अपूर्व अनुभागकाण्डक और अपूर्व स्थितिबन्धका प्रारम्भ करता है।
३५. शंका-करणपरिणामोंका उपसंहार हो जाने पर स्थितिकाण्डक आदि यहाँ पर कैसे सम्भव हैं ?
समाधान-ऐसी आशंका नहीं करनी चाहिए, क्योंकि करण परिणामोंका अभाव होने पर भी एकान्तानुवृद्धिसे वृद्धिको प्राप्त हुए संयमासंयमके परिणामोंकी प्रधानतावश स्थितिघात आदिको यहाँ पर प्रवृत्ति होनेमें विरोधका अभाव है।
विशेषार्थ—उक्त विधिसे संयमासंयमको प्राप्त करनेवाले जीवके परिणाम अन्तर्मुहूर्त काल तक नियमसे उत्तरोत्तर अनन्तगुणी विशुद्धिको लिये हुए होते हैं, इसलिए इन एकान्तानुवृद्धिरूप परिणामोंके कालके भीतर स्थितिकाण्डकघात, अनुभागकाण्डकघात और स्थितिबन्धापसरणरूप कार्यविशेष पूर्ववत् प्रथम समयसे ही प्रारम्भ होकर उक्त कालके भीतर नियमसे होते रहते हैं यह पूर्वोक्त कथनका तात्पर्य है।
३६. संयमासंयम गुणके माहात्म्यवश गुणश्रेणिनिर्जरा भी यहाँ पर प्रारम्भ हो जाती है इस बातका कथन करनेके लिए आगेके सूत्रको कहते हैं
* तथा असंख्यात समयप्रबद्धोंका अपकषण कर उदयावलि-बाह्य गुणश्रेणिकी रचना करता है। - $ ३७. यथा-संममासंयमगुणको प्राप्त होनेके प्रथम समयमें ही उपरिम स्थितियोंके
१. ताप्रती असंखेज्जसमयपबद्ध इति पाठः ।