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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [संजमासंजमलद्धी १४. संपहि एदं विसोहिकालमेवंविहेण वावारविसेसेणाणुपालिय तदो हेट्ठिमविसोहिविसयं वोलीणस्स उवरिमो करणणिबंधणो विसोहिपरिणामो केरिसो होइ त्ति आसंकाए सुत्तपबंधमाह
* तदो अधापवत्तकरणं णाम अणंतगुणाए विसोहीए विसुज्झदि, पत्थि हिदिखंडयं वा अणुभागखंडयं वा । केवलं हिदिबंधे पुणे पलिदोवमस्स संखेजभागहीणेण हिदि बंधदि । जे सुभा कम्मंसा ते अणुभागेहिं बंधदि अणंतगुणेहिं जे असुहकम्मंसा ते अणंतगुणहीरोहिं बंधदि ।
१५. एदेसि सुत्तपदाणमधापवत्तकरणवद्धाणमत्थो जहा दंसणमोहोवसामणाए वुत्तो तहा एत्थ वि परवेयव्यो, विसेसाभावादो। संपहि एत्थ अधापवत्तकरण
विशेषार्थ-वेदकप्रायोग्य कालके भीतर जो मिथ्यादृष्टि जीव वेदकसम्यक्त्वके साथ संयमासंयमभावको युगपत् प्राप्त होता है उसके अनिवृत्तिकरण तो होता नहीं, केवल अधःप्रवृत्तकरण और अपूर्वकरण परिणाम होते हैं। उसमें भी अधःप्रवृत्तकरण होनेके पूर्व अन्तर्मुहूर्त काल तक स्वभाव सन्मुख हुए परिणामोंके द्वारा प्रति समय अनन्तगुणी विशुद्धिसे विशुद्ध होनेवाले उक्त जीवके जो कार्यविशेष होते हैं उनको यहाँ स्पष्ट किया गया है। जो वेदकसम्यग्दृष्टि जीव संयमासंयमको प्राप्त होता है उसके भी संयमासंयमभावके सन्मुख होनेके अन्तमुहूत काल पूर्व स्वभावसन्मुख हुए परिणामोंके कारण प्रति समय उत्तरात्तर अनन्तगुणी विशुद्धि होकर नियमसे उक्त कार्य विशेष होते हैं। यहाँ इतना विशेष समझना चाहिए कि जो चरणानुयोगकी विधिके अनुसार द्रव्य संयमासंयमको स्वीकार कर उसका निरतिचार पालन करता है वही जीव उक्त प्रकारकी विशुद्धिको प्राप्तकर स्वभावसन्मुख होकर भाव संयमासंयमको प्राप्त करता है । आत्माके स्वभावप्राप्तिका यही एक मार्ग है, अन्य मार्ग नहीं जो संयमासंयमी जीव, मन्द संक्लेशवश गिरकर अन्तर्मुहूर्त कालके भीतर पुनः संयमासंयमको प्राप्त करता है उसकी यहाँ चर्चा नहीं।
१४. अब इस प्रकारके विशुद्धिकालको इस प्रकारके व्यापारविशेषके द्वारा पालन कर तदनन्तर अधस्तन विशुद्धिस्थानको वितानेवाले जीवके उपरिम करणनिबन्धन विशुद्धिपरिणाम किस प्रकारका होता है ऐसी आशंका होनेपर सूत्रप्रबन्धको कहते हैं
* तत्पश्चात् अधःप्रवृत्तकरण नामवाली अनन्तगुणी विशुद्धिसे विशुद्ध होता है। यहाँ पर न तो स्थितिकाण्डक होता है और न अनुभागकाण्डक होता है। केवल स्थितिबन्धके पूर्ण होनेपर पन्योपमके संख्यातवें भागप्रमाण हीन स्थितिको बाँधता है । जो शुभ कर्म प्रकृतियाँ हैं उन्हें उत्तरोत्तर अनन्तगुणे अनुभागोंके साथ बाँधता है और जो अशुभ कर्म हैं उन्हें प्रति समय अनन्तगुणे हीन अनुभागोंके साथ बाँधता है ।
$ १५. अधःप्रवृत्तकरणसे सम्बन्ध रखनेवाले इन सूत्रपदोंके अर्थका कथन जिसप्रकार दर्शनमोहकी उपशामना अनुयोगद्वारमें किया है उसीप्रकार यहाँ भी करना
१. ता०प्रती अणंतगुणेहि [ हीणा ] इति पाठः । २. ता०प्रतौ वि इति पाठो नास्ति ।