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________________ 4/जैन समाज का वृहद् इतिहास प्रकाशित साहित्य : जैन समाज के इतिहास के स्रोत विगत 30-40 वर्षों में प्रकाशित साहित्य में भी उपलब्ध होते है तथा कुछ पुस्तके तो इतिहास पर ही आधारित है। यद्यपि उनमें धर्म, दर्शन, संस्कृति का इतिहास अधिक मात्रा में उपलब्ध होता है लेकिन सामाजिक इतिहास के पृष्ठ भी उनके आधार पर लिखे जा सकते है। इस सम्बन्ध में खण्डेलवाल जैन समाज का वृहद् इतिहास, पल्लीवाल जैन इतिहास, जैसवाल जैन समाज तथा जयपुर, देहली, इन्दौर, कानपुर, आगरा, कलकत्ता जैसे नगरों की जैन डाइरेक्ट्रियों, बख्तराम का बुद्धि विलास, जैन पत्र-पत्रिकाएं, ए हिस्ट्री ऑफ जैनाज (A History of Jainas) श्री महावीर ग्रंथ अकादमी जयपुर द्वारा प्रकाशित जैन काव्य कृतियों पर आधारित 10 भाग, व्यक्तिपरक स्मृति ग्रंथ एवं अभिनन्दन ग्रंथ, दिगम्बर जैन साधु परिचय, विद्वत अभिनन्दन ग्रेथ समाज के इतिहास की सामग्री को प्रस्तुत करने वाले स्रोत है, जिनका अध्ययन इस सम्बन्ध में आवश्यक है। भारत का मूल धर्म : जैन धर्म और जैन समाज दोनों ही ऐतिहासिक काल से भारत के मूल धर्म एवं समाज रहे है। आयों के आगमन के पूर्व जो जातियों यहाँ रहती थी वे सब श्रमण धर्म की उपासक थी, अहिंसा प्रिय थी तथा शान्त स्वभाव की थी। जबकि आर्य लड़ाकू थे इसलिये उन्होंने यहाँ के मूल निवासियों को अपने वश में कर लिया। वर्तमान अवसर्पिणी काल के चौबीस तीर्थंकरों में ऋषभदेव प्रथम तीर्थकर है। उनके ज्येष्ठ पुत्र भरत के नाम से इस देश का नाम भारत पड़ा। ऋषभदेव के पश्चात् 23 तीर्थकर और हो चुके है जिनमें पार्श्वनाथ 23 वे और महावीर 24 वें तीर्थंकर थे। ऋषभदेव, नेमिनाथ एवं पार्श्वनाथ का उल्लेख वेदों में यत्र-तत्र मिलता है। भागवत पराण में ऋषभदेव को आठवाँ अवतार स्वीकार किया है। इस प्रकार वैदिक साहित्य से ही जैन धर्म की प्राचीनता सिद्ध होती है। इसलिये जैन धर्म जो पहले आहेत धर्म, श्रमण धर्म के नाम से देश में जाना जाता था, भारत का मूल धर्म है। महावीर स्वामी 24वे एवं इस युग के अन्तिम तीर्थकर थे। उन्होंने 30 वर्ष तक देश के विभिन्न भागों में विहार करके अहिंसा, अनेकान्त एवं अपरिग्रहवाद के सिद्धान्त को जन-जन तक पहुंचाया। आज हमारे देश में ही नहीं किन्तु पूरे विश्व में सर्व-जीव-समभाव, सर्व-धर्म-समभाव एवं अपरियहवाद (आवश्यकता से अधिक संग्रह नहीं रखना) की जो बराबर वकालत कर रहे है वे ही सिद्धान्त जैन समाज में ही सर्वाधिक प्रमुखता को लिये हुये हैं। महावीर काल में जैन समाज : महावीर के शासन काल में जैन समाज कितना विस्तार लिये हुये था, इस सम्बन्ध में तो कहीं स्पष्ट उल्लेख नहीं मिलता लेकिन इतना अवश्य है उनके संघ में एक लाख श्रावक, तीन लाख भाविकाये थी। 1. लेखक : डॉ. ए.के. राय
SR No.090204
Book TitleJain Samaj ka Bruhad Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKasturchand Kasliwal
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year
Total Pages699
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Culture
File Size16 MB
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