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________________ 186/ जैन समाज का वृहद इतिहास भद्र आदिनाथ और नेमिनाथ की मूर्तियों का विशेष महत्व है। इन पर गुप्तकालीन कला परम्परा की स्पष्ट छाप है । मेवाड़ प्रदेश का चित्तौड पहाड़ जैनाचार्यों का कितनी ही शताब्दियों तक केन्द्र रहा । आगम ग्रंथों की रचना का वह मुख्य स्थान बना रहा । 11वीं व 12वीं शताब्दी तक राजस्थान में जैन मुनियों का विहार होता रहा। चित्तौड़ के पश्चात् अजमेर, चम्पावती, तक्षकगढ जैसे नगर जैन धर्म के प्रमुख केन्द्र माने जाने लगे । मुस्लिम काल में भट्टारकों का उदय हुआ और भट्टारक संस्था का इतना अधिक प्रभाव रहा कि दिगम्बर मुनि भी उन्हीं के देखरेख में रहते रहे । राजस्थान में होने वाले प्रमुख भट्टारकों में से भ. पद्मनंदि, शुभचन्द्र, जिनचन्द्र, प्रभाचन्द्र, सकलकीर्ति, शुभचन्द्र, जगत्कीर्ति जैसे नाम स्वर्णाक्षरों में लिखने योग्य हैं। इन भट्टारकों का मुस्लिम बादशाहो से गहरा संबंध था इसलिये पंचकल्याणक प्रतिष्ठा महोत्सव, यात्रा संघों का संचालन, साधुओं का विहार खूब होता रहता था । इन भट्टारकों के प्रभाव से जैन पवों के अवसर पर शिकार खेलने की सखा मनाही रहती थी। . उत्तर भारत की प्रमुख जैन जातियों का राजस्थान के किसी न किसी भाग से निकास होना भी कम महत्वपूर्ण नहीं है। ओसिया में ओसवाल, खण्डेला से खण्डेलवाल, बघेरा से बघेरवाल, चित्तौड से चित्तोडा जातियों का उद्भव माना जाता है। राजस्थान में यद्यपि किसी सिद्ध क्षेत्र की उपलब्धि तो नहीं मिलती लेकिन यहां अतिशय क्षेत्रों की तो 20 से भी अधिक संख्या है । इनमें बिजौलिया, चंवलेश्वर, श्रीमहावीर जी, केशोरायपाटन, चांदखेडी, आदि के नाम लिये जा सकते हैं। राजस्थान का जैन समाज सन् 1981 की जनगणना में राजस्थान में जैन समाज की जनसंख्या 624327 थी इसमें दिगम्बर श्वेताम्बर, स्थानकवासी एवं तेरहपंथी ये चारों ही सम्प्रदाय सम्मिलित हैं । दिगम्बर जैन समाज में यद्यपि बीस पंथ, तेरह पंथ विचारधारा विद्यमान है तथा पूजा पद्धति में कुछ मौलिक मतभेद भी हैं । लेकिन समाज की दृष्टि से दोनों ही पंथ दिगम्बर जैन समाज के ही अंग हैं । भट्टारक युग में दिगम्बर जैन समाज मूलसंघ, काष्ठा संघ, द्राविड संघ, माथुर संघ आदि शाखा उपशाखाओं में विभक्त हो गया था लेकिन उनके मूल स्वरूप में कोई अन्तर नहीं आया था। इसके पश्चात् दिगम्बरों में तेरहपंथ विचारधारा की उपज 17वीं शताब्दी की देन रही। भट्टारक सम्प्रदाय वाले बीस पंथी और अध्यात्म शैली वाले तेरहपंथी कहलाने लगे। तेरहपंथ पूजा पद्धति में बीस पंथ से कुछ अलग मान्यतायें रखने लगा लेकिन सामाजिक रीति-रिवाजों, परम्पराओं में कोई अन्तर नहीं आया । उनका ब्राह्य स्वरूप एक सा बना रहा। श्वेताम्बर समाज कई भागों में बंट गया । मूर्तिपूजक समाज 84 गच्छों में विभाजित हो गया उनमें खरतर गच्छ, तपागच्छ जैसे गच्छ प्रमुख हो गये । स्थानकवासी बाईस पंथ या बाईस टोला नाम से प्रसिद्ध हो गये। सभी स्थानकवासी जैन बन्धु साधुओं की उपासना करते हैं तथा मुंहपट्टी लगाते हैं। इन्ही स्थानकवासियों में से अषाढ शुक्ला पूर्णिमा शनिवार (28 जून 1760 ई.) को स्थानकवासी समाज से अलग होकर संत भिक्षु (भीखण जी) ने
SR No.090204
Book TitleJain Samaj ka Bruhad Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKasturchand Kasliwal
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year
Total Pages699
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Culture
File Size16 MB
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