________________
राजस्थान प्रदेश का जैन समाज/185
राजस्थान में जैनधर्म सर्वाधिक प्राचीन धर्म है अथवा यह यहाँ का मूलधर्म है । भगवान आदिनाथ से लेकर महावीर स्वामी तक सभी तीर्थकरों ने किसी न किसी रूप में राजस्थान की भमि को पावन किया है यही कारण है जैन धर्मावलम्बी यहां के स नगरों एवं हजारोगांवों में बसे हुये हैं और वहाँ के मूल निवासी हैं । जैन धर्म यहाँ का कितना पुराना धर्म है इस संबंध में उपलब्ध पुरातत्व साक्ष्य ही पर्याप्त नहीं है । लेकिन राजस्थान में जैन समाज प्रारंभ से ही प्रभावी रहा है । यद्यपि उस समय इस प्रदेश का वर्तमान स्वरूप तो नहीं था लेकिन दूंढाड़, मत्स्य, कुरुजांगल, खेराड, बागड, मेवाड़, मारवाड़ आदि नामों से जाना जाता था । इन प्रदेशों में महावीर के पूर्व जैन धर्म की क्या स्थिति थी इसके संबंध में निश्चित परिणाम पर पहुंचना तो कठिन है लेकिन इतना अवश्य है कि इनके पूर्व होने वाले भपार्श्वनाथ ने राजस्थान को अपने विहार से पवित्र किया था और भीलवाड़ा प्रान्त रिस्थत बिजोलिया के भीम वन को अपनी तपोभूमि बनाया था और कमठ असुर द्वारा किये गये उपसर्ग में विजय प्राप्त की थी । इस घटना का विस्तृत वर्णन वहीं पर एक चट्टान पर अंकित संवत् 1226 के शिलालेख से जाना जा सकता है। शिलालेख पूर्णत: ऐतिहासिक है और इसमें वर्णित सभी उल्लेख सही पाये गये हैं। भगवान पार्श्वनाथ के संबंध में निम्न पंक्तियाँ उल्लेखनीय हैं “यहीं पर भीम नाम का वून है जहाँ जिनराज का वास है। यहीं वे शिलायें विद्यमान हैं जिन्हें कमठ शठ ने आकाश में फेंका था । सर्वदा विद्यमान यही वह उद्यान कुण्ड सरिता है तथा यह वह स्थान है जहाँ परमसिद्धि को प्राप्त हुये।" बिजोलिया के अतिरिक्त चंबलेश्वर, दर्रा की गुफा पर अंकित लेख, झालरापाटन की पहाड़ी पर बनी 11 वीं शताब्दी की निषेधिकायें भगवान पार्श्वनाथ के विहार होने की कहानी कहती है।
पार्श्वनाथ के पश्चात् महावीर ने राजस्थान के किस भाग को अपनी चरण रज से पवित्र किया इस संबंध में तो कितनी ही जनश्रुतियां चर्चित हैं किन्तु आठवीं शताब्दी में होने वाले आचार्य जिनसेन ने अपने महापुराण में महावीर के जीवन की एक घटना का उल्लेख किया है और वह है उज्जयिनी के अतिमुक्तक शमसान में ध्यानस्थ होने का। इसलिये यह अधिक संभव है कि उज्जयिनी जाने अथवा वहां से आने के पश्चात् उन्होंने राजस्थान के किसी भाग में विहार किया हो । कविवर बुलाखीचन्द ने अपनी रचना बचनकोष (रचना काल सन् 1680) में भगवान महावीर के समवशरण का जैसलमेर में आने का उल्लेख किया है । महावीर के शासन काल में ही जैनधर्म ने राजस्थान में दृढता से आपने पांव जमा लिये थे और उसे लोकप्रियता प्राप्त होने लगी थी। दिगम्बर . साधुओं का विहार होने लगा था । यही कारण है कि उनके निर्वाण के कुछ ही वर्षों पश्चात् अंतिम केवली जम्बूस्वामी ने चौरासी मथुरा में आकर निर्वाण प्राप्त किया था । मथुरा का क्षेत्र तो राजस्थान से सटा हुआ है । यहां के कंकाली टीले की खुदाई में दूसरी शताब्दी में बने अति प्राचीन स्तूप और जैन मंदिरों के ध्वंसावशेष मिले हैं जिनसे ज्ञात होता है कि राजस्थान में उस समय जैन समाज अत्यधिक समृद्ध एवं प्रभावशाली था ।
__ मथुरा के पश्चात् राजस्थान में जैन धर्म एवं समाज के प्रसार का सर्वाधिक ठोस प्रमाण ईसा से पूर्व 5 वीं शताब्दी में बडली का शिलालेख माना जाता है जिसमें वीर निर्वाण संवत् 89 वें वर्ष का तथा चित्तौड के समीप स्थित माझमिका का उल्लेख है । माझमिका जैनधर्म का प्राचीन केन्द्र रही है । मौर्य युग में चन्द्रगुप्त ने जैनधर्म के प्रचार-प्रसार के लिये कितने ही प्रयत्न किये थे । भरतपुर संग्रहालय में प्रदर्शित एवं जफीना से प्राप्त सर्वतो