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है कि किसी जीव को मत सताओ, इसका आचारण भी करते हैं, जब हज्ज (तीर्थयात्रा) को जाते हैं तब जूं तक भी नहीं मारते, चोरी नहीं करते, देखकर चलते हैं। इस धर्म के सिद्धान्त इस प्रकार हैं-एक अद्वैत निर्गुण ईश्वर अल्लाह ही परम ध्यान करने योग्य है, अल्लाह केवल जगत् का कर्ता-धर्ता है। साकार ईश्वर भी राजा के समान महान् होता है। वह दूत के समान सब का हितकारक है। इस सम्प्रदाय में भी मूर्ति के बिना तथा जल, पुष्प आदि वस्तुओं के बिना निर्गुण ईश्वर की उपासना एकान्त में होती है, यही ईश्यर-पूजा का भावपक्ष है।
पारसी सम्प्रदाय के अनुयायी अग्निदेव के उपासक होते हैं। यह अग्नि ब्रह्मतेज का प्रतीक है। पारसी शब्द का शुद्ध रूप संस्कृत में पार्टी होता है, जिसका तात्पर्य होता है-पार्श्व अर्थात् समीपस्थ होकर परमात्मा की उपासना (भक्ति) करनेवाले को पार्टी (पारसी) कहते हैं। इस सम्प्रदाय के
थियोसोफी मत हिन्दूधर्म के अन्तर्गत मान्य है। इसका सिद्धान्त है कि इस जगत में एक अतिविशाल जड़ द्रव्य है जो बहुत उष्ण है। उसका करोड़ों मोल का विस्तार है, वह मेघ के समान शक्तियों का समूह है। वह द्रव्य घूमते-घूमते सूर्य का मण्डल बन जाता है। उसी से हाइड्रोजन यायु, लोहा आदि पदार्थ बन जाते हैं। कुछ द्रव्यों के संयोग से जीवनशक्ति (आत्मा) प्रकट हो जाती है। इसी से क्रमशः वनस्पति, पशु, पक्षी तथा मनुष्य बन जाते हैं। सूर्य की भक्ति से ज्ञान प्राप्त करके वह मानव अन्त में मुक्त हो जाता है।
आर्यसमाज सम्प्रदाय के जन्मदाता ऋषि दयानन्द सरस्वती के नाम से प्रसिद्ध हैं। इसकी मान्यता है कि परमात्मा, जीव और प्रकृति-ये तीन पदार्थ अनादिकाल से विद्यमान हैं। मुक्ति में जीव विद्यमान रहता है। परब्रह्म की उपासना कर विश्वव्यापी ब्रह्म में वह मुक्त जीव बिना रुकावट के विज्ञान एवं आनन्दपूर्वक स्वतन्त्र विचरता है।
(सत्यार्थ प्रकाश-समुल्लास ५, पृ. 252} सोलहवीं शती में बुन्देलखण्ड के अंचल में 'तारणतरणस्वामी' नामक एक महान सन्त ने जन्म लिया। समय की परिस्थिति वश उन्होंने शिष्यों को अध्यात्मवाद को विशेष दृष्टि में रखकर उपदेश दिया। उन तन्त ने स्वरचित 'पण्डित पूजा' पुस्तक में पण्डित और देवपूजा का स्वरूप कहा है
ओं नमः विन्दते योगी, सिद्धं भक्त शाश्वतम्।
पण्डितो सोपि जानन्ते, देवपूजा विधीयते॥ (पण्डितपूजा-इन्नपन्न,-] तात्पर्य -जी पंचपरमेष्ठी के गुणों का आत्मा में अनुभव और निरन्तर उन्हीं को स्मरण करते हैं, वे अपने शाश्वत सिद्ध पद को प्राप्त करते हैं। उन्हीं को पण्डित
I. विस्तार के लिए देखिए-भागवत धर्म (सहजानन्ट डायरी सन 14:59) . लेखक- सहजानन्द
पहाराज : प्र. सहजानन्द शास्त्रमाला, सन 1971, पृ. 29-69
12:: जैन पूजा-काव्य : + चिन्तन