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________________ हस्त की हथेली रहती है, दृष्टि नासान पर रहती है, गर्दन सीधी रहती है, मूर्ति इसी आकार की बनाया जाती है। मुक्ति प्राप्त करने के योग्य शुक्लध्यान का दूसरा आसन कायोत्सर्गासन होता है। इसमें शरीर की दशा रहती है लाठी की तरह, शरीर सीधा रहता है, दोनों पंजे बराबर कुछ अन्तर से रहते हैं, हाथ लटके हुए रहते हैं, हाथ तथा चरणों की अँगुलियाँ मिली हुई रहती हैं। गर्दन सीधी और दृष्टि नासाग्र रहती है, ध्यान करते समय दोनों आसमें अचल रहती हैं, डाँस, मच्छर, मक्खी आदि जानवरों की बाधा को सहन किया जाता है, कष्टों को शान्त भाव से सहन किया जाता है, इसी कायोत्सर्गासन के आकार की मूर्ति बनायी जाती है। जैनमूर्तियों का आकार इन दोनों आसनों के समान ही होता है। जैन तीर्थ क्षेत्रों में गुफ़ाओं में, पर्वतों पर और मन्दिरों में इन हो दो आसनों वाली मूर्तियाँ विराजमान रहती हैं। इन मूर्तियों का परिचय प्राप्त करने के लिए प्रतिष्ठानन्थों के आधार इनके चिह्न भी निश्चित किये गये हैं, इन चिहों से निश्चित की गयी प्रतिमाओं को शिक्षित, अशिक्षित, बाल, वृद्ध, नर, नारी, देशीय, विदेशीय सभी जान सकते हैं कि ये प्रतिमा किस तीर्थकर की और कित परमेष्ठी की है-तीर्थकर अर्हन्त चौबीस में वृषभ (बैल), हाथी आदि चौबीस लक्षण पूर्व रेखाचित्र में कहे गये हैं। सामान्य अर्हन्त की प्रतिमा का कोई चिद्र निश्चित नहीं, सिद्ध प्रतिमा का कोई लक्षण नहीं, आचार्य परमेष्ठी की प्रतिमा का लक्षण (चिह) दक्षिण हस्त से आशीर्वाद प्रदान, उपाध्याय परमेष्ठी की प्रतिमा का लक्षण शास्त्र (ग्रन्थ), साधु परमेष्ठी की प्रतिमा का लक्षण पीछी-कमण्डल निश्चित है। __ जिस प्रकार तीर्थकर अर्हन्त आदि पंचपरमेठी देवों की मूर्तियाँ होती हैं, उसी प्रकार अर्हन्त भगवान् की दिव्य ध्वनि (दिव्यवाणी) जो सकल जगत् के पदार्थों का उपदेश करती है, उसको भी मूर्ति शब्द (अक्षर) रूप होती है, अक्षरों के समूह से पदों (शब्दों का निर्माण होता है, पदों से वाक्य की रचना होती है, वाक्यों से श्लोक की रचना होती है और श्लोक समूह से ग्रन्थ या शास्त्र का उदय होता है। इस कारण कार्य सम्बन्ध की परम्परा से यह सिद्ध हो जाता है कि तीर्थकर अर्हन्त भगवान् के धर्मोपदेश की मूर्ति शास्त्र है। इसी को वृत्तान्त, आगम, सिद्धान्त, ग्रन्थ, शास्त्र और पुस्तक कहते हैं। दोनों मृतियां में अन्तर इतना रहता है कि मूल या मूर्तमान पदार्थ का प्रतिनिधित्व करनेवाली मूर्ति, पाषाण, धातु आदि की बनी हुई साकार होती है और तीर्थंकर महावीर, महात्मा-बुद्ध इत्यादि महापुरुषों द्वारा उपदिष्ट वाणी की मूर्ति, काग़ज़ की बनी हुई तथा उसमें अक्षरों का आकार होता है। महात्मा को मूर्ति और उनकी वाणी की मूर्ति शास्त्र या ग्रन्थ इन दोनों मूर्तियों की समान रूप से पुज्यता होना परम आवश्यक है। पर वह आश्चर्य का विषय है कि विश्व के अनेक मानय महात्मा गुरुओं के उपदेश की मूर्ति ग्रन्थ (शास्त्र) को तो मानते हैं परन्तु महात्मा जैन पूजा-काब का उद्भव और विकास :: 77
SR No.090200
Book TitleJain Pooja Kavya Ek Chintan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDayachandra Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages397
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Devotion
File Size7 MB
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