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________________ अधिक समय तक संलग्न नहीं रह सकता। मूर्ति का यह सबसे महान् प्रभाव है। स्थापना निक्षेप की पद्धति प्रतिनिधि पद्धति है। इसी प्रतिनिधि पद्धति का अनुकरण सर्वत्र प्रचलित है। राज्य परिषद्, लोक सभा तथा अन्य अ भा सामाजिक स्तर की महासभाओं के निर्माण में प्रतिनिधि निर्वाचित कर भेजने की व्यवस्था है, इसका तात्पर्य यही है कि जिस क्षेत्र के दशलाख व्यक्तियों के स्थान पर जो व्यक्ति प्रतिनिधि निर्वाचित हुआ है, उस व्यक्ति का दश लाख व्यक्तियों के बराबर गौरव है, सभा में उसकी उपस्थिति, दशलक्ष व्यक्तियों की उपस्थिति मानी जाती है, उसके वचन दशलक्ष व्यक्तियों के बदन माने जाते हैं, की शक्ति दक्ष व्यक्तियों की शक्ति मानी जाती है। यह प्रतिनिधित्व स्थापना निक्षेप के बल पर ही माना जाता मूर्तमान है। इसी प्रकार शास्त्रविधि के अनुसार बनायी गयी मूर्ति जो कि तदाकार = जैसी आकारवाली हो, वह मूर्ति (प्रतिमा), सर्वज्ञ परमात्मा का प्रतिनिधित्व करती है, परमात्मा जैसी पूज्यता, वीतरागता तथा उपस्थिति उस मूर्ति की मानी जाती है, उसमें भी विशेषता यह है कि मन्त्रों द्वारा उसमें मूल पदार्थ की स्थापना की जाती है। इसी प्रतिनिधित्व पद्धति को समयसार की आत्मख्याति टीका में श्री अमृतचन्द्र जी आचार्य ने दर्शाया है "सोऽयमित्यन्यत्र प्रतिनिधिव्यवस्थापनं-स्थापना" सारांश यह है कि 'यह वही है' इस प्रकार मूर्ति आदि में, आदर्श परमात्मा की प्रतिनिधि रूप से व्यवस्था करना - स्थापना निक्षेप है। जैसे शान्तिनाथ तीर्थंकर की प्रतिमा में ये बही शान्तिनाथ भगवान् हैं। इस प्रकार शान्तिनाथ की प्रतिनिधिरूप में स्थापना करना। इस विलक्षण स्थापना निक्षेप की शक्ति से मूर्ति का आकार दो प्रकार से बनाया जाता है - 1. कायोत्सर्गसन, 2. पद्मासन धर्मध्यान से भी उत्कृष्ट शुक्लध्यान, इन दोनों आसनों में से किसी एक आसन से किया जाता है, इस ध्यान का तीसरा कोई आसन नहीं है। यह मानव आत्म-कल्याण के लिए सर्वप्रथम गृहस्थाश्रम का त्याग कर नैष्ठिक श्रावक की दीक्षा लेता है, इस दीक्षा-तप में निष्णात हो जाने पर आवश्यकता के अनुसार वह नैष्ठिक श्रावक ग्यारहवीं चारित्र श्रेणी के बाद दिगम्बर मुनि की दीक्षा धारण करता है। दि. साधु धर्म-ध्यान के द्वारा मिथ्या श्रद्धान, क्रोध, मान, माया, लोभ आदि विकारों का अभाव कर शुक्ल ध्यान की दशा को अपनाते हैं। उत्कृष्ट तृतीय शुक्लध्यान के द्वारा ज्ञानावरण-दर्शनावरण, मोह-अन्तराय इन चार घातक कर्मों का नाश कर अर्हन्तपद को वे साधु प्राप्त करते हैं । दिगम्बर साधु जब पद्मासन से ध्यान करता है तब मूर्ति पद्मासन दशा की बनायी जाती है, इस पद्मासन में शरीर का आकार होता है कि दोनों चरण जंघाओं के ऊपर रहते हैं, कमर सीधी रहती है, वाम हस्त की हथेली के ऊपर सीधी दक्षिण 76 : जेन पूजा-काव्य एक चिन्तन
SR No.090200
Book TitleJain Pooja Kavya Ek Chintan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDayachandra Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages397
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Devotion
File Size7 MB
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