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________________ विशेषयार्ता अवश्य ध्यान देने योग्य है कि जहाँ कहीं पर भांतिक प्रतिमा का वर्णन किया गया है वाह अलंकार साहित्य की दृष्टि से तथा भारतीय मूर्तिकला की दृष्टि से किया गया है। जो पुरातत्त्व-इतिहास तथा संस्कृति का विषय है। परन्तु इन विपयों में वीतरागमूर्ति का ही ध्येय स्थिर तथा प्रमुख रहना जरूरी है। ___मूर्ति पूजा के विधान से अनेक प्रयोजनों की सिद्ध होती है-अर्हन्त की प्रतिमा, चैत्यालय आदि नयदेव धर्म के आयतन (अधिष्ठान = विशेष आधार) कहे गये हैं, इनकी उपासना से जीवन में धर्म-साधना का शुभारम्भ, लोक-प्रचलित धर्म या स्वयं प्राप्त धर्म की रक्षा और सुरक्षित धर्म की उन्नति होती है। देश में, समाज में और कुटुम्ब में धर्म की परम्परा चलती रहती है, न्यायपूर्वक उपार्जन किये गये धनसम्पत्ति के द्वारा उत्साहपूर्वक मन्दिर प्रतिमा आदि धर्मस्थानों के निमाण कराने से श्रावक या गृहस्थ मानव को आत्मगौरव का अनुभव होता है, देश तथा समाज में उसकी प्रतिष्ठा होती है, परोपकार की भावना जागृत होती है, गृहस्थाश्रम के निमित्त से होनेवाले हिंसा असत्य आदि पापों का नाश होकर श्रेष्ट पुण्य का बन्ध होता है। मन्दिर में प्रतिमा के दर्शन-पजन करने से अच्छे विचारों का विकास होता है, दैनिक जीवन में एक नवीन चेतना का उद्भव होता है। जैसे स्वाध्याय या ज्ञान की वृद्धि के लिए शास्त्र (ग्रन्थ) एक महान् आश्रय है उसी प्रकार परमात्मा की भक्ति-पूजन करने के लिए प्रतिमा (मूर्तिी एक महान् आधार है । यद्यपि मूर्ति के बिना अनेक व्यक्ति परमात्मा की भक्ति-कीर्तन का प्रयास करते हैं पर उस भक्ति में क्षणिकता रहती है, वह भक्ति अधिक समय तक स्थिर नहीं रह सकती। अधिक अध्ययन के लिए ग्रन्थ (शास्त्र) का और अधिक भक्ति-पूजन के लिए मूर्ति का आश्रय लेना नितान्त आवश्यक है। अब उपासक भक्ति-कीर्तन करते समय तमक्ष में मूर्ति के रूप को देखता है तो शीघ्र सावधान हो जाता है कि मैं किसी महान् पूज्य महात्मा के सामने खड़ा हूँ। कोई त्रुटि न हो जाए। इसी लक्ष्य को लेकर श्री पण्डितप्रवर आशाधर महोदय का प्रमाण है धिग्दुष्षपाकालरात्रिं यत्र शास्त्रदृशामपि । चैत्यालोकद् ऋते न स्यात् प्रायो देवविशा मतिः॥' तात्पर्य-कालरात्रि (मरणरात्रि) के समान, इस दुःषमा नामक कलिकाल को या उसके वातावरण को धिक्कार है कि जिस कलिकाल में, ज्ञानी पुरुषों की भी बुद्धि प्रतिमादर्शन के बिना प्रायः परमात्मा की भक्ति करने में स्थिर लीन नहीं होती। इसका स्पष्टीकरण यह है कि युद्धिमान मानव ज्ञानाभ्यास तथा ध्यानाभ्यास में बहुत समय तक लीन रह सकता है परन्तु भक्ति-पाठ या स्तुति में प्रतिमा के बिना प्रायः 1. पण्डितप्रवर आशाधर : सागार-धमांगृत : सं.पं. देवकीनन्दन शाम्बी, प्र... गांधी चौक जैन प्रेस सूरत, सन् 1940, पृ. 65, अ. 2, पद्य i. जैन पूजा-काव्य का उद्भव और विकास :: 75
SR No.090200
Book TitleJain Pooja Kavya Ek Chintan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDayachandra Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages397
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Devotion
File Size7 MB
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