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________________ पूजा भक्ति का अनुष्ठान करना व्यर्थ है, कारण कि जिस देव का सद्भाव माना जाए उसकी ही पूजा भक्ति का विधान करना उचित होता है। उत्तर - प्रश्नकर्ता का यह प्रश्न सम्यकू नहीं है, कारण कि अनुमान, आगम और युक्ति से अर्हन्त सर्वज्ञ की सिद्धि होती है। अतः उसके विषय में पूजा-भक्ति का अनुष्ठान करना भी समीचीन है। अनुमान प्रमाण से सर्वज्ञ की सिद्धि पर ध्यान देना चाहिए। सूक्ष्म पदार्थ ( परमाणु आदि), अन्तरित पदार्थ (काल के अन्तर से सहित श्री रामचन्द्र आदि महापुरुष), दूरवर्ती पदार्थ (मे-हिमालय पर्वत आणि किती आग के है क्योंकि ये पदार्थ अनुमान से जाने जाते हैं अग्नि के समान जैसे दृष्ट पर्वत आदि पर स्थित अग्नि हम सबके द्वारा, धूम देखकर अनुमान से जानी जाती है तथा अग्नि, पर्वत पर खड़े हुए पुरुषों द्वारा प्रत्यक्ष रूप से देखी जाती है, उसी प्रकार सूक्ष्म, कालान्तरित और दूरवर्ती पदार्थ हम सबके द्वारा अनुमान करने योग्य हैं और वहाँ स्थित पुरुषों के द्वारा एवं प्रत्यक्षदर्शी महात्मा द्वारा प्रत्यक्ष रूप से जाने जाते हैं और जो महात्मा उन तीन प्रकार के पदार्थों को प्रत्यक्ष जानता है वही सर्वज्ञ है । प्रश्न- पुद्गल का परमाणु नेत्र से दिखाई नहीं देता, इसलिए उसका अभाव है । .. उत्तर - यह कहना सत्य नहीं कि परमाणु की भी अनुमान से सिद्धि होती है, परमाणु को सिद्धि करनेवाला अनुमान यह हैं- इस जगत् में परमाणु विद्यमान हैं क्योंकि परमाणु समूह से बने हुए घट पट आदि पदार्थ देखे जाते हैं, यह सभी मानव प्रत्यक्ष जानते हैं। इसी प्रकार सर्वज्ञदेव भी अनुमान से जाने जाते हैं। यदि सर्वज्ञ अर्हन्त द्वारा पदार्थों का उपदेश न दिया जाता तो हम सब सूक्ष्म पदार्थ तथा रामचन्द्र युधिष्ठिर आदि महापुरुषों को एवं मेरुपर्वत स्वर्ग, नरक आदि को कैसे जान सकते थे, सभी मानव अज्ञानान्धकार में पड़े रहते। अतः सर्वज्ञ का सद्भाव सिद्ध होता है। सर्वज्ञ अर्हन्त की सिद्धि का दूसरा अनुमान - भगवान् अर्हन्त सर्वज्ञ हैं क्योंकि वे दोषरहित हैं। जो सर्वज्ञ हैं वे निर्दोष हैं, जो सर्वज्ञ नहीं है वह आत्मा निर्दोष नहीं है जैसे रथ्यापुरुष (मार्ग में चलनेवाला पुरुष ) । इस अनुमान से भी सर्वज्ञ की सिद्धि होती है । प्रत्यक्ष देखने में आता है कि जो अल्पज्ञानी या मिथ्याज्ञानी पुरुष हैं वे निर्दोष नहीं हैं अर्थात् दोष सहित हैं। वे सर्वज्ञ कैसे हो सकते हैं, कभी नहीं । अर्हन्त सर्वज्ञ, अज्ञान - मोह राग, द्वेष आदि सम्पूर्ण दोषों से हीन वीतराग हैं क्योंकि आपके कथित अहिंसा, स्याद्वाद, मुक्ति, अपरिग्रह, अध्यात्मवाद आदि सिद्धान्त, प्रत्यक्ष अनुमान आगम और स्वानुभव रूप युक्तियों से परस्पर विरोध को प्राप्त नहीं होते। जो-जो आत्मा निर्दोष होती है उस उसके वचनों में कभी परस्पर विरोध नहीं देखा जाता। नीति हैं कि वक्ता की प्रमाणता से वचनों में प्रमाणता होती 50 जैन पूजा -काव्य : एक चिन्तन :.
SR No.090200
Book TitleJain Pooja Kavya Ek Chintan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDayachandra Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages397
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Devotion
File Size7 MB
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