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________________ है। वक्ता यदि निर्दोष है तो वचन भी उसके निर्दोष तथा अविरुद्ध होते हैं और वक्ता यदि पक्षपाती, अज्ञानी, शराबी और यूतकारी होता है जो उसके वचन भी दोषपूर्ण-अन्यायी-पापपूर्ण-अहितकारी होते हैं। अतः अर्हन्त सर्वज्ञ निर्दोष हैं अतएव उनके उपदेश तथा सिद्धान्त भी निर्दोष तथा विरोध-रहित हैं। आगम प्रमाण द्वारा भी सर्वज्ञ अहंन्त सिद्ध होता है, इसका प्रमाण सूक्ष्मान्तरितदूरार्थाः प्रत्यक्षाः कस्यचिद् यथा। अनुदलतोऽम विते सवितरियशिस त्वमेयासि निर्दोषो युक्तिशास्त्राविरोधिवाक् । अविरोधो यदिष्टं ते प्रसिद्धेन न बाध्यते।।' अर्थात् सूक्ष्म परमाणु आदि, कालान्तरित रामचन्द्र युधिष्ठिर आदि, दरवर्ती मेरु हिमालय आदि पदार्थ किसी आत्मा के प्रत्यक्ष गोचर अवश्य हैं। कारण कि वे अनुमान करने योग्य हैं, जैसे धूम से दूरस्थित अग्नि का अनुमान किया जाता है तथा वह अग्नि किसी व्यक्ति के द्वारा प्रत्यक्ष देखी गयी है। उसी प्रकार ये तीन प्रकार के पदार्थ भी किसी आत्मा के प्रत्यक्ष दृष्ट हैं और समस्त लोक के पदार्थों का यह प्रत्यक्षदर्शी सर्वज्ञ ही है। वह सर्वज्ञ अर्हन्त देव ही सर्वज्ञ इस कारण से है कि वह अज्ञान-मोह आदि दोषों से रहित है, तथा वह निर्दोष इस कारण से है कि उसके वचन (उपदेश) युक्ति आगम तथा प्रत्यक्ष आदि प्रमाणों से विरोधरहित हैं और उसके वचन विरोध रहित इस कारण से हैं कि प्रत्यक्ष या स्वानुभव से मुक्ति, अहिंसा, स्याद्वाद आदि सिद्धान्त परस्पर विरोधपूर्ण नहीं हैं एवं विश्व के हितकारी हैं। सर्वनपरमात्मा की सिद्ध में कुछ अनुभवपूर्ण स्पष्ट युक्तियाँ आकाशपुष्प, बन्ध्यापुत्र, घोड़े के सींग, गन्ने में फल इत्यादि पदार्थों का वर्णन किसी शास्त्र में नहीं देखा जाता है इसलिए इनका सद्भाव नहीं है परन्तु सर्वज्ञ अर्हन्त का वर्णन प्रमाण तथा युक्तियों से शास्त्रों में देखा जाता है, उनके गुणों का कीर्तन तथा स्मरण किया जाता है, इसलिए सर्वज्ञ का सद्भाव है। इनका स्तक्न-कीर्तन करने से आत्मा निर्मल पवित्र हो जाता है इससे सिद्ध होता है कि परमात्मा का अस्तित्व है। जिस तरह सत्यस्वप्न ज्ञान इन्द्रियों का विषय नहीं है तो भी आत्मानुभव में आता है, इसी प्रकार सूक्ष्म परमात्मा इन्द्रियों द्वारा दृष्ट नहीं है तो भी आत्मानुभव में आता है और उसके प्रति श्रद्धाभाव जागृत होता है। अतएव सर्वज्ञ की सत्ता सिद्ध होती है। I. न्यावदीपिका : प्रत्यक्ष प्रकाश, सं. डॉ. दरबारी लाल : प्र. --योरसेवा मन्दिर देहली, सन् 1968, पृ. 47 (प्र. द्वि. संस्करण) जैन पूजा-काव्य का उद्भव और विकास :: 51
SR No.090200
Book TitleJain Pooja Kavya Ek Chintan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDayachandra Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages397
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Devotion
File Size7 MB
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