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________________ में इस क्षेत्र की अवस्थिति के विषय में भी संकेत किया गया है कि यह क्षेत्र रेवा नदी के पश्चिम तट पर अबस्थित है। कूट शब्द से यह आशय व्यक्त होता है कि यह क्षेत्र पर्वत के ऊपर शोभायमान है और यह कुट सिद्धक्ट या सिद्धवर कूट कहा जाता है। संस्कृत निर्वाण भक्ति में 'वरसिद्ध कूटे' यह शब्द भी आया है। रेवा नदी के तटवर्ती इस क्षेत्र का कोई विशेष नाम नहीं था, किन्तु सार्ध तीन कोटि मुनिराजों का सिद्धिस्थान होने के कारण इस पर्वत-शिखर एवं क्षेत्र का नाम ही सिद्धवरकूट हो गया। इस तीर्थ पर सम्पूर्ण दशमन्दिर मानव समाज के लिए नव्य चेतना प्रदान करते हैं। कुल 90 दिगम्बर प्रतिमाएं विश्व को मोक्षमार्ग का उपदेश करती हुई की तरह प्रतीत होती हैं, 12 चरण युगल चिह्न महात्माओं का स्मरण कराते हैं। श्री बाहुअलिस्वामी को मकराने की एक भव्य प्रतिमा, खड्गासन 8 फीट उन्नत, वी.सं. 2491 में प्रतिष्ठित, विश्व को आत्मशुद्धि करने को सम्बोधित करती कवि महेन्द्र कीति द्वारा तीथों के प्रति भक्ति भावना से प्रेरित होकर सिद्धवरकूट तीर्थ के पूजा-काव्य की रचना की गयी है। इस काव्य में 31 पद्यों का सृजन पाँच प्रकार के छन्दों के माध्यम से किया गया है। इन पद्यों में अलंकार, प्रसाद्गुण और सरलरीति के प्रयोग से शान्तरस को पुष्टि की गयी है। उदाहरणार्थ कतिपय काव्यों का दिग्दर्शनदोहा-तीर्थ की महिमा सिद्धकूट तीरथ महा, है उत्कृष्ट सुथान । मन वच काया कर नमों, हाय पाप की हान॥ जग में तीर्थ प्रधान है, सिद्धवरकूट महान। अल्पमती मैं किमि कहौं, अद्भुत महिमा जान!! पत्ता छन्द जो सिद्धवर पूजे, अतिसुख हने, ता गृह सम्पत्ति नाहि रं। ताको जश सुरनर मिल सब गायें, 'महेन्द्र कीर्ति' जिनभक्ति कर। दोहा सिद्धवरकूट सुधान की. महिमा अगम अपार । अल्पमती में किमि कहौं, सुरगुरु लहे न पार।' 1. वृहद् नहावीर कीर्तन : पृ. 754-756 12 :: जैन पूजा काव्य : एक चिन्तन
SR No.090200
Book TitleJain Pooja Kavya Ek Chintan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDayachandra Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages397
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Devotion
File Size7 MB
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