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________________ विद्यार्थी को प्रथम ही उपासकाचार (श्रावकाचार) गुरुमुख से पढ़ना चाहिए। गुरुमुख से पढ़ने का अभिप्राय यह है कि श्रावकों की बहुत-सी ऐसी क्रियाएँ हैं जो अनेक शास्त्रों के मन्थन करने से निकलती हैं, गुरुमुख से ये सहज ही प्राप्त हो सकते हैं। श्रावकाचार पढ़ने के बाद न्याय, व्याकरण, गणित, साहित्य आदि लौकिक एवं पारमार्थिक विधाओं का अध्ययन करे। वह बालक जब तक विद्याध्ययन करेगा तब तक उसके यही वेश और व्रत रहेंगे। जब विद्याध्ययन समाप्त हो जाएगा तब इसका यह वेष और व्रत छूट जाएँगे। शास्त्रानुसार विद्यार्थी के सोलह वर्ष और कन्या के बारह वर्ष पूर्ण होने पर विवाह जस्कार होगा तथा इन गृहस्यों के जाल मूलगुण का धारण हो जाएगा, जो श्रावकों के मुख्य व्रत कहे जाते हैं। वर्तमान समय में वर और कन्या का, अधिक उम्र में भी विवाह संस्कार सम्पन्न हो सकता है कारण कि वर्तमान में शिक्षा की अवधि पूर्व से अधिक हो गयी है, लौकिक शिक्षा का स्तर भी वैज्ञानिक युग में उन्नत हो गया है। पूर्वकाल की अपेक्षा महिलावर्ग में भी अधिक शिक्षा की प्रगति हो गयी है। विवाह संस्कार मानव-जीवन का विवाह संस्कार, सोलह संस्कारों में अन्तिम एवं महत्वपूर्ण संस्कार हैं। सुयोग्य वर एवं कन्चा के जीवन पर्यन्त घनिष्ट सम्बन्ध सहयोग और दो हदयों के अखण्ड मिलन या संगठन को विवाह कहते हैं। विवाह, विवहन, दह, उद्बहन, पाणिग्रहण, पाणिपीइन-ये सब ही एकार्थवाची शब्द हैं। "विवहनं विवाहः" ऐसा व्याकरण से शब्द सिद्ध होता है। विवाह का प्रयोजन-मोक्ष पुरुषार्थ की सिद्धि का लक्ष्य रखकर धर्म, अर्थ एवं काम पुरुषार्थ की साधना करना, एवं इन तीन वर्गों की अखण्ड परम्परा चलाना, शान्तिपूर्वक विषयों का सेवन, सदाचार का निर्दोष पालन, कुल उम्नति करना और गृहस्थ जीवन के सोलह संस्कारों के साथ छह दैनिक कर्तव्यों का पालन करना विवाद का उद्देश्य (प्रयोजन) है। गृहस्थ (प्रावक) के छह दैनिक कर्तव्य इस प्रकार हैं-(1) भगवत्पूजन, (2) गुरु या श्रेष्ठ पुरुषों की संगति एवं सेवा, (3) ज्ञान वृद्धि के लिए स्वाध्याय करना, (4) संयम, व्रत एवं सदाचार का पालन करना, (5) इच्छाओं को रोककर एकाशन, उपवास आदि करना, (6) आहार (भोजन), ज्ञान औषधि और जीवनदान एवं जीवनसुरक्षा करना ॥ विवाह के पाँच अंग... वाग्दानं च प्रदानं च, वरणं पाणिपीडनम्। सप्तपदीति पंचांगी, विवाहः परिकोर्तितः ॥ (1) वाग्दान (सगाई करना), 12) प्रदान (विधिपूर्वक कन्यादान), (3) वरण (माला द्वारा परस्पर स्वीकारना), (4) पाणिग्रहण कन्या एवं वर का हाथ मिलाकर, 248 :: जैन पूजा काय · एक चिन्तन
SR No.090200
Book TitleJain Pooja Kavya Ek Chintan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDayachandra Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages397
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Devotion
File Size7 MB
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