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(काजल) अवश्य लगाना चाहिए। प्रथम क्रिया की तरह, पूजन एवं हवन करना आवश्यक हैं।
वृति संस्कार
चौथी क्रिया का नाम 'धृति' हैं। इसको 'सीमन्तोन्नयन' अथवा सीमान्त क्रिया भी कहते हैं। इसको सातवें माह के शुभ दिन नक्षत्र योग मुहूर्त आदि में करना चाहिए। इसमें प्रथम संस्कार के समान सब विधि कर लेना चाहिए पश्चात् यन्त्र - पूजन एवं हवन करना चाहिए। इसके बाद सौभाग्यवती नारियाँ गर्भिणी के केशों में तीन माँग निकालें ।
मोद क्रिया
मोद-प्रमोद या हर्ष ये एक ही अर्थवाले शब्द हैं। इस संस्कार में हर्षवर्धक ही सब कार्य किये जाते हैं अतः इसको 'मोद' कहते हैं। गर्भ से नौवें माह में यह मोद क्रिया की जाती है। प्रथम संस्कार की तरह सब क्रिया करते हुए सिद्धयन्त्रपूजन और हवन करना चाहिए। अनन्तर आचार्य गर्भिणी के मस्तक पर णमोकार मन्त्र पढ़ते हुए ओं श्री आदि बीजाक्षर लिखना चाहिए। पीले चावलों की वर्षा मन्त्रपूर्वक करनी चाहिए। वस्त्र आभूषण धारण कराने के साथ हस्त में कंकण सूत्र का बन्धन करना चाहिए । शान्ति विसर्जन पाठ पढ़ते हुए पुष्पों की वर्षा करना जरूरी है । पश्चात् गर्भिणी को सरस भोजन करना चाहिए तथा आमन्त्रित सामाजिक बन्धुओं का आदर-सत्कार करें।
जातकर्म
पुत्र अथवा पुत्री का जन्म होते ही पिता अथवा कुटुम्ब के व्यक्तियों को उचित है कि वे अजिनेन्द्र मन्दिर में तथा अपने दरवाजे पर बाजे बजवाएँ। भिक्षुक जनों को तथा पशु-पक्षियों को दान दें। बन्धु वर्गों को वस्त्र आभूषण, ताम्बूल आदि शुभ वस्तुओं को प्रदान करें । पश्चात् "ओं ह्रीं श्रीं क्लीं ह्रीं हूं ह्रः नानानुजानुप्रजो भव भव असि आउ सा स्वाहा ।" वह मन्त्र पढ़कर, पुत्र का मुख देखकर, घी दूध और मिश्री मिलाकर सोने की चमची अथवा सोने के किसी बर्तन से उसे पाँच बार पिलाएँ। पश्चात् नाही कटवाकर किसी शुद्धभूमि में मोती, रत्न अथवा पीले चावलों के साथ प्रक्षिप्त कर दें।
नामकरण संस्कार
सातवाँ संस्कार नामकर्म (नामकरण) है। पुत्रोत्पत्ति के बारहवें दिन अथवा सोलहवें, बीसवें या बत्तीसवें दिन नामकरण करना चाहिए। कदाचित् बत्तीसवें दिन
जैन पूजा कायों में संस्कार :: 243