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________________ षष्ठ अध्याय जैन पूजा-काव्यों में संस्कार मानव जीवन और संका . जिस प्रकार मणियों का जन्य आकर (खानि) में अवश्य होता है अथवा समुद्र में भी रनों का जन्म होता है अतएव उसे रत्नाकर भी कहते हैं। परन्तु वे मणि आकार-प्रकार, कान्ति और सौन्दर्य से हीन रहते हैं, उनका मूल्यांकन नहीं हो सकता, कारण कि वे संस्कारों से रहित होते हैं। जिस समय उन मणियों का सुयोग्य संस्कार कर लिया जाता है, उस तपय उनमें आकार-प्रकार, चमक-दमक एवं सौन्दर्य गुण का विकास होकर उचित मूल्यांकन होने लगता है, जिनसे आभूषण के रूप में मानव-शरीर को शोभा एवं भवन आदि को सन्दरता अधिक हो जाती है। इसी प्रकार इस विश्व की चौरासी लाख योनिरूपो आकरों में पानरों का जन्म अवश्य होता है, परन्तु वे मानव शिक्षा आदि संस्कारों से हीन होने पर उनमें गुणरूपी कान्ति, सदाचार रूपी सौन्दर्य न होने से कोई योग्यता प्राप्त नहीं होती और न उनके मानव-जीवन का कोई मूल्यांकन हो पाता है। उनका जीवन संस्कारहीन पशु-पक्षियों के समान निःसार रहता है। धार्मिक ग्रन्थों में उल्लेख मिलता है : "जन्मना जायते शूद्रः संस्कारैः, द्विज उच्यते" । इसका तात्पर्य यह होता है कि मनुष्य अपने जन्म से ही शूद, अथांतू गुणहीन, ज्ञानहीन, सदाचारहोन, अशुद्ध और अव्यवस्थित जीवनवाला होता हैं परन्तु वही मानब अच्छे संस्कारों से द्विज हो जाता है अर्थात गुणसम्पन्न ज्ञानी, सदाचारी, शद्ध और व्यवस्थित जोबन की चर्मावाला हो जाता है। द्विज शब्द का व्याकरण की दृष्टि में अर्ध इन प्रकार सिद्ध होता है-"टाभ्यां जन्मभ्यां जायत उत्पद्यते इति द्विजः" अर्थात् दो बार जिसका जन्म होता है उसे द्विज कहते हैं। इस नियम के अनुसार दाँतों को दिन इसलिए कहते हैं कि ब दाँत शिश अवस्था में उत्पन्न होकर गिर जाते हैं और कुछ समय पश्चात व पुनः उत्पन्न हो जाने हैं. लोक में कहावत को प्रसिद्ध है कि ... "दूध के दांत गिरते हैं और अन्न के दांत जैन पूजा-काज्यों में संस्कार :: 23%
SR No.090200
Book TitleJain Pooja Kavya Ek Chintan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDayachandra Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages397
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Devotion
File Size7 MB
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