SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 234
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 1 I 'सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणि मोक्षमार्ग : " सारांश - सम्यकूदर्शन, सम्यक्ज्ञान और सम्यक् चारित्र इन तीन गुणरत्नों की युगपत् साधना करना मुक्ति का मार्ग है। जिस प्रकार गंगा पुरुषवैद्यराज (डॉक्टर) के द्वारा कही हुई, निदानानुकूल रोग की दवा पर विश्वास, दवासेवन का ज्ञान और दवासेवन रूप आचरण, इन तीनों गुणों का एक साथ पुरुषार्थ करता है, तो वह रोगी रोग से यथासमय मुक्त हो जाता है अर्थात् नीरोग हो जाता है। उसी प्रकार जन्म-मरण जरा, क्रोध, मान, माया, लोभ, हिंसा आदि रोगों से रोगो यह संसारी आत्मा, अर्हत् भगवान रूपी वैद्यराज के द्वारा कथित, रत्नत्रय रूप दवा की श्रद्धा, ज्ञान, आचरण द्वारा साधना (पालन) करता है तो वह संसारीरुग्ण आत्मा दुष्कर्मरूपरोग से मुक्त होकर परमात्म पद को प्राप्त करता है । जिस प्रकार हमारे नेताओं-महात्मा गाँधी, इन्दिरा गाँधी आदि ने राष्ट्र कं निर्माण के लिए घोषणा को, कि दूरदृष्टि, पक्का इरादा, कड़ा अनुशासन से ही राष्ट्र की समुन्नति हो सकती है, उसी प्रकार आध्यात्मिक क्षेत्र में भी श्रद्धा, ज्ञान एवं आचरण ( चारित्र) के माध्यम से ही आत्मा को मुक्ति प्राप्त हो जाती है। सारांश यह है कि जैसे किसी भी लौकिक कार्य के लिए कार्य पर विश्वास, कार्य करने का ज्ञान और कार्य को विधिपूर्वक सम्पन्न करना ये तीन पुरुषार्थ आवश्यक हैं। उसी प्रकार धार्मिक क्षेत्र में भी आत्म-विकास के लिए श्रद्धा ज्ञान और सदाचरण को प्राप्त करना हो रत्नत्रय का अन्तरंग पूजन है तथा इस अन्तरंग रत्नत्रय के अनुकूल जो बाह्मप्रवृत्ति होती हैं, उनको अष्टद्रव्य से अचा होती है। वह रत्र का बाह्य पूजन है । जैनदर्शन में उक्त कारणों को अपेक्षा ही रत्नत्रय का पूजन करना परम कर्तव्य दशांचा गया है। इस कारण महारक श्री धर्मचन्द्र ने संस्कृत में बृहत् रत्नत्रय पूजा का निर्माण किया है। जिससे कि विरुज्जन संस्कृत रत्नत्रय पूजा के माध्यम से रत्नत्रय की साधना कर सकें। इसी प्रकार कविवर द्यानतराय ने हिन्दी में रत्नत्रय पूजा की रचना की है जिससे कि जनसाधारण हिन्दी रत्नत्रय पूजा के माध्यम से रत्चन्नव की उपासना कर आत्मशुद्धि में पुरुषार्ध कर सकें। इसी ध्येय को सुरक्षित करते हुए कविचर पं. टेकचन्द्र जी ने रत्नत्रय पूजा विधान का निर्माण किया है। इन तीनों पूजन काव्यों के परिचय एवं मुख्य उद्धरण इस अध्याय में संक्षेप से प्रदर्शित किये गये है। अन्त में पौराणिक शिक्षाप्रद रत्नत्रय धर्म का आख्यान अंकित है। 1. ज्याचं नाणी सं.न. पन्नाहाचा प्रजेन सुत : 1, 1987 28 : पूजा-काव्य : एक चिन्तन
SR No.090200
Book TitleJain Pooja Kavya Ek Chintan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDayachandra Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages397
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Devotion
File Size7 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy