SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 233
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ रत्नत्रय पूजा रत्नत्रय की सेव कर रत्नत्रय गुण गाव | रत्नत्रय की भावना कर पल पल शिर नाव ।। ' रत्नत्रय व्रत का मन्त्र ओं ह्रीं श्रीसम्यक् रत्नत्रयाय अनर्धपदप्राप्तये अर्धं निर्वपामि स्वाहा ॥ पौराणिक रत्नत्रयव्रत का आख्यान - सम्यग्दर्शन ज्ञानव्रत, इनबिन मुक्ति न होय । रत्नत्रयव्रत की कथा कही सुनो भविलोय ॥ * 1 पौराणिक आख्यान प्रसिद्ध है कि प्राचीन काल में वीतशोकपुर नामक नगर में, राजनीतिज्ञ धार्मिक वैश्रवणनृप एक दिन वसन्त ऋतु में उद्यान के मध्य मनोविनोदार्थ गये। वहाँ पर उनकी दृष्टि अचानक एक दिगम्बर तपस्वीयोगी पर पड़ी । नृपराज ने निकट जाकर सविनय वन्दनापूर्वक प्रार्थना की है मुनिराज आत्मकल्याण के हेतु धर्मोपदेश दीजिए। मुनिराज ने रत्नत्रय धर्म का उपदेश दिया। वैश्रवण राजा ने 12 वर्ष रत्नत्रयधर्म का श्रद्धानसहित प्रतिपालन किया । एक दिन राजा ने पवन के तीव्र झकोरे के कारण जड़ से उखड़े हुए विशाल वटवृक्ष को देखकर अपने जीवन को क्षणिक जानते हुए मुनि दीक्षा धारण कर ली। तप के प्रभाव से उत्तम स्वर्ग में जन्म लिया। वहाँ से अवतरित होकर वे 19वें तीर्थंकर मल्लिनाथ हुए। देवों तथा मानवों ने पंचकल्याण महोत्सव किये। जीवन के अन्त में दीक्षा लेकर श्रेष्ठ योगी होते हुए आर्यखण्ड के सहस्रों नगरों में उपदेश दिया और अन्त में परमात्मपद प्राप्त किया। यह सब रत्नत्रय धर्म का प्रभाव है । उपसंहार जैनपूजा -काव्य में रत्नत्रयधर्म का अत्यन्त महत्त्व है। परमात्मा, सत्यार्थ सिद्धान्त और वास्तविक गुरु के विषय में दृढ़ श्रद्धा करना सम्यक् दर्शन कहा जाता है अहिंसा सिद्धान्तों एवं आत्म आदि तत्त्वों के यथार्थ ज्ञान का विकास करना I सम्यक् ज्ञान कहा जाता है। श्रद्धा एवं ज्ञान के साथ पवित्र आचरण करना सम्यक् चारित्र कहा जाता है। इन तीन आध्यात्मिक रत्नों को रत्नत्रय शब्द से कहा जाता हैं। इस रत्नत्रय की सम्पूर्णता को ही मुक्ति या निर्वाण कहते हैं। तत्त्वार्थ सूत्रग्रन्थ में इसी विषय का विवेचन किया गया है। 1. रत्नत्रयविधान, पृ. 43 2. जैन व्रतकथा संग्रह सं. पं. मोहनलाल शास्त्री, प्र. - अनग्रन्थ भण्डार, जयाहरगंज, जबलपुर, पृ. 39-G4. वी. न. 2503 जैन पूजा काव्यों में रत्नत्रय
SR No.090200
Book TitleJain Pooja Kavya Ek Chintan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDayachandra Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages397
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Devotion
File Size7 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy