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________________ r | इन अंगों का आचरण करना आवश्यक हैं। जैनपूजा - काव्य में सम्यक् चारित्र ( तृतीय रत्न) का अर्चन जैनपूजा - काव्य में तीसरे रत्न ( सम्यक्चारित्र) का पूजन भी बहुत गम्भीर और महत्त्वपूर्ण है, जिसकी पूर्णता सम्यग्दर्शन तथा सम्यक्ज्ञान के होने पर ही होती है, सम्यक्चारित्र के पूर्ण होने पर ही साक्षात् मुक्तिलक्ष्मी की प्राप्ति होती है, दूसरे शब्दों में कहा जा सकता है कि आत्मा परमात्मा पद को प्राप्त हो जाता है। इसकी रूपरेखा इसके वर्णन के प्रारम्भ में कही गयी है। सम्यक्चारित्र की पूजा में जो विशेषता कही गयी है वह इस प्रकार है-. आनन्दरूपोऽखिलकर्ममुक्तो निरत्ययः ज्ञानमयः सुभावः । गिरामगम्यो मनसोऽप्यचिन्त्यो, भूयान् मुदे वः पुरुषः पुराणः ॥ काव्यसौन्दर्य-जो अक्षय आनन्दरूप है, समस्त कर्मविकारों से रहित है, अविनाशी है, ज्ञान स्वरूप है, उत्तम गुणरूप है, वाणी के द्वारा कहने के योग्य नहीं हैं, मन से भी अविचारणीय है वह पुराणपुरुष तुम सबके हर्ष प्राप्ति के लिए हो । वह काव्य सम्यक्चारित्र की भूमिका का मंगलाचरण है, इस काव्य में उपजाति छन्द शोभावर्धक है, स्वभावोक्ति अलंकार व्यक्त होता है। इस काव्य का आभूषण रूपक तथा उपमा हैं, वसन्ततिलका छन्द सौन्दर्य है, प्रसादगुण की शोभा है और यह काव्य शान्तरस का जलाशय है । अर्घ्यद्रव्य से अहिंसामहाव्रत का पूजन निराकुलं जन्मजरार्तिहीनं, निरामयं निर्भयमात्मसौख्यम् । फलं यदीयं करुणामयं तन्महाव्रतं संततमाश्रयामि ॥ 2 काव्यसार - जिसके पालन करने का फल निराकुल, जन्म, जरा, दुःखों से रहित रोगरहित तथा निर्भय आत्मसुख की प्राप्ति होती है, करुणाविभूषित उस 'अहिंसा महाव्रत' का हम सदा आश्रय करते हैं एवं भावपूर्वक अर्धद्रव्य समर्पित करते हैं। स्वभावोक्ति और शान्तरस रम्य हैं । वचनगुप्ति ( मौनव्रत) का अर्घ्यद्रव्य से पूजन भवन्ति गणनातिगाः गुग्गाः, सत्यामसत्यादिनिवृत्तिसम्भवाः । भवापदान्तरं विधित्सतः सा में वचगुप्तिरुदेति मानसे ॥ # 1. ज्ञानपाट पूजाजाल, 2. तथैव पृ. 285, पद्य-2 3. तथैव पृ. 287 जैन पूजा काच्चों में रत्न-नय- 2261
SR No.090200
Book TitleJain Pooja Kavya Ek Chintan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDayachandra Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages397
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Devotion
File Size7 MB
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