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________________ ------ - - -- - - . . . . . ----. ... '..." . ... ... .. .. -::-.-.- मालिनी छन्द से शोभित इस पध में स्वभावोक्ति, रूपक तथा परिकर अलंकारों के विन्यास से शान्तरस आत्मा में प्रवाहित होता हैं। जयमाला का द्वितीय पद्य विमोह विमारितकामभुजंग, अनेकसदाविधिभाषितभंग । कषायदवानलतत्त्वसुरंग, प्रसीद जिनोतम मुक्तिसुसंग ।। (3) तृतीय अचलमेरुपर्वत के मन्दिरों का पूजनस्थापना-- जिनान्संस्थापयाम्यावाहनादिविधानतः । धातकीपश्चिमाशास्थाचलमेरुप्रवर्तिनः ॥ मन्त्र-ओं ही अचलमेरुसम्बन्धिजिनप्रतिमासमूह! अत्र अवतर अवतर संवौषट् । अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः। अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् इति ॥ जयमाला का दूसरा पप इस प्रकार है --पादाकुलकछन्द सुरखेचरकिन्नरदेवगम, यात्रागतचरणमुनीन्द्ररणम् । नानारचनारचितप्रसरं, वन्द गिरिराजमहं विभरम् ॥ जयमाला के सातवें पश्य का तात्पर्य इस प्रकार है : इस काश्य में मालिनी छन्द के माध्यम से अचलमैस का प्राकृतिक वर्णन किया गया है। इस पर्वत की पूजा के उदाहरणमात्र ये. दो पद्य हैं। इसी प्रकार इस पूजा में कुल पठारह पर चार प्रकार के छन्दों में विरचित हैं जो भक्तिभाव पूर्ण हैं। (4) मन्दिरमेरुपर्वत का पूजन : इस गिरिराज की पूजा में कुल अठारह काब छह प्रकार के छन्दों में निबद्ध हैं जो अनेक अलंकारों से अलंकृत एवं भक्तिरस पूर्ण हैं। उदाहरणार्थ स्थापना का पद्य इस प्रकार शोभित है। जिनान संस्थापयाम्यत्रावाहनादिविधानतः । मेरुमन्दिरनामानः, पुष्पांजलि विशुद्धये ॥ सारांश-मैं पुष्पांजलिव्रत की विशुद्धता के लिए आवाहन आदि विधि से मन्दिरमेरुसम्बन्धी जिनप्रतिमाओं की स्थापना करता है। अक्षत द्रव्य समर्पण करने का पय-- चन्द्रांशुगौरविहितः कन्नमाक्षतायः घ्राणप्रिवरावेतथैः विमलैरखण्डः । मेर्स यजेऽखिलरेन्द्रसमर्चनीय श्रीमन्दिरं विततपुष्करद्वीपसंस्थम् ॥ वसन्ततिलका छन्द में विचित इस काव्य में अमालंकार तथा परिकरालंकार कं प्रयोग से भक्तिाल की धारा प्रवाहित होती है. . 1!3-4 :: जैन पूजा-काव्य : TE चिन्तन
SR No.090200
Book TitleJain Pooja Kavya Ek Chintan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDayachandra Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages397
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Devotion
File Size7 MB
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