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________________ बहिष्कार नहीं किया जा सकता है। अरहन्तदेव का अभिषेक प्रस्वेद (पसीना), सन्ताप और मैल को दूर करने के लिए नहीं किया जाता है, कारण कि उनके परम औदारिक शरीर में पसीना, उष्णता एवं किसी भी प्रकार का मैल या मल नहीं होता, यह एक अतिशय है। अतः साक्षातू अरिहन्तदेव का इन्द्रों द्वारा अभिषेक स्वाभाविक नियोग है जो पूजन का एक आवश्यक अंग है। इसी तात्पर्य को व्यक्त करनेवाला प्राचीन आचार्य द्वारा विरचित एक श्लोक अभिषेक पाठ के अन्तर्गत है : दूरावनम्र सुरनाथकिरीटकोटी-संलग्नरत्नकिरणच्छविधूसरांघ्रिम् । प्रस्वेद-ताप-मलमुक्तमपिप्रकृष्टैः भक्त्याजलैः जिनपति बहुधाभिषिं चे ॥ इस प्रकार पूजा, विधान और प्रतिष्ठा ग्रन्थों के प्रमाणों से यह सिद्ध हो जाता है कि अभिषेक एक आवश्यक क्रिया और पूजन का अंग है। अभिषेक की आवश्यकता और उपयोगिता का कथन करने के बाद अब अभिषेक एवं पूजन की सामान्य सामग्री का उल्लेख करते हैं : __ मन्दिा. प्रतिलित मूर्ति रेजिन, चौता नगई सम्पूर्ण वर्तन अष्टद्रव्य, सिंहासन, सिद्धयन्त्र, ठौना, अभिषेक की थाली, अष्टद्रव्य की थाली, द्रव्य अर्पण करने की थाली, घिसी हुई केसर, पंगलकलश, अभिषेक कलश, वस्त्रखण्ड, स्नानकर शुद्ध धोती-दुपट्टा का धारण करना पूजक को आवश्यक है, शुद्ध वस्त्र से जल छानकर पवित्र अग्नि से गरम करना, कुएँ का जल इत्यादि। अभिषेक की विशेष विधि वि. सं. की 13वीं शती में श्री माघनन्दी आचार्य ने पूजाकर्म के प्रथम अंग की क्रमशः विधि का निर्देश किया है जो इस प्रकार है : श्रीमन्नतामर-इत्यादि पूर्वोक्त प्रथम श्लोक पढ़कर कायोत्सर्गासन में नव बार नमस्कार मन्त्र पढ़ना चाहिए एवं नमस्कार करना चाहिए। द्वितीय तथा तृतीय श्लोक पढ़कर थाली में पुष्पांजलि छोड़ना चाहिए। चतुर्थ श्लोक पढ़कर अभिषेक की थाली में श्रीः एवं स्वास्तिक लिखना चाहिए। पंचम श्लोक पढ़कर थाली को उच्चासन पर स्थापित करें। पष्ठ एवं सप्तम श्लोक पढ़कर अभिषेक थाली में श्री प्रतिमा को विराजमान करें। अप्टम-नवम श्लोक पढ़कर थाली के चारों कोणों में चार जलपूर्ण कलश रखे। दशम श्लोक पढ़कर जिनदेव के लिए अर्थ (8 द्रव्यों का समूह) अर्पित करे । ग्यारहवाँ श्लोक तथा मन्त्र पढ़कर जिनदेव पर प्रथम जलधारा दें बारहवां श्लोक तथा मन्त्र पढ़ाकर निरन्तर 108 जलधारा देव प्रतिमा पर छोड़े। अभिषेक के समय पर जय ध्यान तथा घण्टाध्वनि की जाए। तेरहवाँ श्लोक पढ़कर मन्त्र के साथ 1. मन्दिरपेदीप्रतिष्ठाकलशारोहणविधेि, पृ. 13 से 38 तक, सं. प्र., प्रका.- श्रीगणेशप्रसाद यौँ जैन ग्रन्धघाला. गराणसो । सम्या पं. पन्नालाल साहित्याचाय । संस्कृत और प्राकृत जैन पूजा-काव्यों में छन्द... :: 157
SR No.090200
Book TitleJain Pooja Kavya Ek Chintan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDayachandra Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages397
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Devotion
File Size7 MB
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