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________________ भवभ्रमण का सन्ताप नष्ट होकर आत्मा में शान्ति-लाभ हो। है भगवन्! आपके अभिषेक का पवित्र जल पुण्य रूप अंकुर का उत्पादक है, सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्ररूपलता की वृद्धि को करनेवाला है, कीर्ति, लक्ष्मी और विजय का साधक है। हे भगवन्! आपके अभिषेक तथा अर्चन से हमारा मानव जन्म सफल हो गया, पापकर्म पृथक् हुए और हम पवित्र हो गये। अन्य जैन आचार्यों द्वारा प्रणीत, संस्कृत बीस श्लोकों से शोभित अभिषेक पाठ में भी अभिषेक करने का प्रयोजन दर्शाया गया है। श्लोक सं. 12 का तात्पर्य है-दृर से ही भक्ति के साथ विनम्र देवेन्द्रों के मुकुटी में जड़ित रत्नों के किरण समूह से जिनके चरण शोभित हैं, ऐसे जिनेन्द्रदेव के चरणों का प्रस्वेद (पसीना), सन्ताप (गी) एवं धूलि आदि मैल से रहित होने पर भी हम भक्ति (गुणानुराग) से, शुद्ध जल के द्वारा अभिषेक करते हैं। श्लोक सं. 19 का सारांश है-मान लो कि भक्त प्राणियों के शत-शत (सैकड़ों) मनोरथों के समान जलपूर्ण एक सौ आठ अथवा एक हजार आठ कलशों के द्वारा, इस विशाल संसार-सागर को पार करने के लिए पुल की तरह अर्हन्त भगवान् का भक्तिपूर्वक अभिषेक करते हैं। अर्थात् संसार-सागर को पार करने के लिए हम अभिषेक करते हैं। अभिषेक पाठ के श्लोकों के उक्त सारांशों से यह सिद्ध हो जाता है कि अर्हन्तदेव का अभिषेक केवल शिर से जल डालने की क्रिया नहीं है अपितु आत्म-कल्याण के लिए, भावों की विशुद्धि के लिए, परमात्मा के गुणस्मरण के लिए और पंचकल्याणकों के रमरण के लिए विधिपूर्वक विनय के साथ एक अभिषेक क्रिया है जो कि एक प्रकार की अर्चा है एवं पूजन का आवश्यक अंग है। अभिषेक करते समय एक शलोक में यह प्रयोजन भी दर्शाया गया है-भक्त मानवों के अभीष्ट सैकड़ों मनोरथों के समान जलपूर्ण अवशिष्ट सम्पूर्ण एक सौ आठ सुवर्णकलशों के द्वारा, संसाररूप समुद्र को उल्लंघन करने का कारण एक पुलरूपी त्रिलोकपति जिनेन्द्रदेव का मैं अभिषेक करता हूँ। इस भावपूर्ण श्लोक का उद्धरण : "इष्टर्मनीरथशतारेच भव्यपुंसां, पूर्णेः सवर्णकलशैः निखिलैः वसानः । संसारसागरविलंघनहेतुसेतुमाप्तावमंत्रिभुवननैकपति जिनेन्द्रम् ॥" इस श्लोक में बसन्ततिलका छन्द और रूपकालंकार एवं उपमालंकार का सुन्दर शैली में प्रयोग किया गया है। इससे अभिषेक का एक प्रयोजन यह भी सिद्ध हो जाता है कि दुःखरूप संसार-सागर को पार करने के लिए ही अरिहन्त भगवान का अभिषेक किया जाता है। कारण कि अरिहनादेव का पुरुषार्थ सम्पूर्ण संसार-सागर को पार कर परमसिद्ध परमात्मा बन जाने का हैं। साक्षात् आरेहन्तदेव का अभिषेक एक स्वाभाविक नैतिक नियोग है जिसका 156 :: जैन पूना-काव्य : एक चिन्तन
SR No.090200
Book TitleJain Pooja Kavya Ek Chintan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDayachandra Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages397
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Devotion
File Size7 MB
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