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________________ सर्पाहारलता भवत्यसिलता सत्युष्यदामायते सम्पद्येत रसायनं विषमपि प्रीतिं विधत्ते रिपुः । देवा यान्ति बहप्रसन्नमनसः किं वा बह रुमहे धर्मादेव नभोऽपि वर्षति नगैः कुर्वन्तु ते मंगलम्।। श्री सिंहनन्दि आचार्य द्वारा विरचित मंगलाष्टक में विश्व-कल्याण के लिए परमात्मा का स्मरण करते हुए अनेक मंगलकामनाएँ नव संस्कृत श्लोकों द्वारा की गयी हैं। उनमें से एक श्लोक उदाहरणरूप प्रस्तुत किया जाता है सद्घामा म तपूरत जिंतजगत् पापप तापो स्कराः भाव्यप्राणिवितीर्णनिर्मलमहाः स्वर्गापवर्गश्रियः । त्यक्त्वाऽशेषनिबन्धनानि नितरां प्राप्ताः श्रियं शाश्यतीं ते श्रीतीर्थकराः प्रणष्टविधुराः कुर्वन्तु वो मंगलम्।।' अन्तिम मंगल इत्थं श्रीजिनमंगलाष्टकमिदं सौभाग्यसम्यक्करम् कल्याणेषु महोत्सवेषु सुधियस्तीर्थंकराणामुषः । ये शृण्वन्ति पठन्ति तैश्च सुजनैर्धार्थकामान्विता लक्ष्मीराश्रयते व्यपायरहिता निर्वाणलक्ष्मीरपि। धार्मिक परम्परा में शास्त्र प्रवचन, धर्मोपदेश तथा स्वाध्याय के प्रारम्भ में मंगलाचरण किया जाता है ओंकारं बिन्दसंयक्तं नित्यं ध्यायन्ति योगिनः । कामदं मोक्षदं चैव ओंकाराय नमोनमः।। अर्थ-बिन्द संयुक्त 'ओं यह बीजाक्षर मन्त्र है, योगीजन-ज्ञानी-ऋषि इसका सदैव ध्यान करते हैं। यह मन्त्र अभीष्ट फल को तथा मोक्ष पद को प्रदान करनेवाला है, इस मंगलकारी ओं मन्त्र के लिए बारम्बार प्रणाम है। अविरलशब्दघनौघप्रक्षालित सकल भूतल कलंका। मुनिभिरूपासित ती सरस्वती हरतु नो दुरितम्॥ भावार्थ--अधिक शब्द रूप मेघों के द्वारा सकल प्राणियों के अज्ञान तथा पापों को प्रक्षालित करनेवाली तथा महर्षियों एवं ज्ञानियों के द्वारा उपासित (सेवित) तीर्थवाली सरस्वती (जिनवाणी) माता हम सब विश्वप्राणियों के अज्ञान, पाप, व्यसन को हरण करे। 1, श्रीस्तोधबाट संग्रह, प्र.-सुन्दरलाल जैन, टोडारायसिंह जयपुर, 1952 ई., संग्रहकर्ता-शु. सिद्धसागर, पृ. 40 जैन पूजा-काव्य के विविध रूप :: 125
SR No.090200
Book TitleJain Pooja Kavya Ek Chintan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDayachandra Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages397
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Devotion
File Size7 MB
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