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________________ अज्ञानतिमिरान्धानां ज्ञानांजनशलाकया । चक्षुरुन्मीलितं येन तस्मै श्रीगुरवे नमः ॥ तात्पर्य - अज्ञानरूप अन्धकार से अन्धे मानवों के ज्ञानरूप नेत्र को ज्ञानरूप अंजन से लिप्त शलाका के द्वारा जिन गुरुवरों ने खोल दिया है। उन श्री पूज्य गुरुवरों के लिए सविनय प्रणाम प्रस्तुत है । उक्त मंगलाचरण के प्रथम श्लोक में अनुष्टुप छन्द और अनुप्रास अलंकार है। द्वितीय श्लोक में आर्याछन्द और रूपकालंकार स्पष्ट है। तृतीय श्लोक में अनुष्टुप छन्द तथा रूपकालंकार है । जैन धर्म में ओं की सिद्धि-संस्कृत में जैसे अ को अकार, इ को इकार कहते हैं उसी प्रकार ओं को ओंकार भी कहा जाता है। ओं यह एक अक्षर का मन्त्र है परन्तु वह मन्त्र गम्भीर अर्थ व्यक्त करता है। संस्कृत व्याकरण के अनुसार अरहन्त - अशरीर (सिद्ध) आचार्य - उपाध्याय -मुनि-साधु इन पंच परमदेवों के प्रथम अक्षर को लेकर इसकी सिद्धि होती है, जैसे अरहन्त का अ, अशरीर का अ, यहाँ पर अ + अ के स्थान में आ यह दीर्घ सन्धि हो जाती है। इस आ के साथ आचार्य के आ की, आ आ आ इस तरह दीर्घ सन्धि हो जाती है। इस आ की, उपाध्याय के उ के साथ आ + उ = ओ इस तरह गुणसन्धि हो जाती है। इस ओ के साथ मुनि का मू जोड़ने पर ओम् तथा म् को अनुस्वार होकर ओं (ॐ) यह मन्त्र सिद्ध होता है। = वैदिक धर्म में ओं की सिद्धि- जैसे जैनदर्शन में पंचपरमदेवों के प्रथम अक्षरों से ओं सिद्ध होता है उसी प्रकार वैदिक धर्म में भी ब्रह्मा-विष्णु-महेश इन तीनों महादेवों के एक-एक अक्षरों में ओं सिद्ध होता है-जैसे ब्रह्मा के अन्त का आ तथा विष्णु के अन्त का उ, यहाँ पर आ + उ ओ यह व्याकरण के अनुसार गुणसन्धि हो जाती है, इस ओ के साथ महेश का म् संयुक्त करने पर ओम् तथा म् को अनुस्वार करने पर 'ओंकार' यह मन्त्र सिद्ध होता है। जैनदर्शन और वैदिकदर्शन इन दोनों दर्शनों में 'ओं का महामहत्त्व एवं पूज्यत्व माना जाता है और प्रत्येक मन्त्र के आगे तथा प्रत्येक शुभकार्य के आदि में इसका प्रयोग होता है। श्री समन्तभद्र आचार्य द्वारा 'रत्नकरण्ड श्रावकाचार नाम ग्रन्थ विरचित हुआ है जिसमें गृहस्थ धर्म का वर्णन है। उसके आदि का मंगलकाव्य 1. पं. टोडरमल : मोक्षमार्ग प्रकाशक : सं. मगनलाल जैन प्रा. दि. जैन स्वाध्यायमन्दिर प्रस्ट, सोनगढ़ (सौराष्ट्र), प्रारम्भिक पृ. 2 पर 1-2-3 2. (3) 'अकः सवर्णे दीर्घः' पाणिनि अष्टाध्याची 6. 1. 101 (2) 'आद्गुणः पूर्वोक्त 61, 87 (3) 'मोऽनुस्वारः' पूर्वोक्त 8 8 23 मध्यसिद्धान्तकौमुदी के अन्तर्गत । 126 :: जैन पूजा - काव्य एक चिन्तन
SR No.090200
Book TitleJain Pooja Kavya Ek Chintan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDayachandra Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages397
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Devotion
File Size7 MB
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