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प्रथम भाग में 'नाट्यशाला' यो, जहाँ नित्य भजन-कीर्तन होता था। दूसरा माग 'जल भूमि' थी, जहाँ स्वच्छ जल में असंख्य कमल खिले थे, और देव-देवांगनाएं नौका विहार कर रहे थे। तीसरे भाग में 'पुष्पवाटिका' थी, जहाँ नाना रूप, रंग, रस, गन्धयुक्त मोहक फूल खिले थे। उसके आगे त्यागी, साधु पुरुषों का निवास था, जिसे 'अशोक भूमि' कहते थे। उसके आगे 'ध्वज-भूमि' में उच्च पर्वत-श्रेणियों पर, छत्तुंग स्तम्भों पर रंग-बिरंगे ध्वज लहरा रहे थे। छठी 'कल्पवृक्ष भूमि पर' अपने शुद्ध स्वरूप में केवलज्ञानी मुनि विराजमान थे। अन्तिम क्षेत्र में, जिसे 'स्तूपभूमि' कहा जाता है, गगनचुम्बी स्तूपों पर बने हुए मन्दिरों में सिद्धों और अरिहन्तों की मनोज्ञ मूर्तियाँ थीं।
इसके बाद चक्राकार भूमि में बारह सभा-गृहों की रचना की गयी थी। प्रथम तीन भागों में मनि, कल्पवासीदेव और आयिकाएँ थीं। फिर देव-देवियों के लिए स्थान सुरक्षित था। दो भागों में मनुष्य थे। इस मांगलिक समायोजन में पशु-पक्षी भी पारस्परिक बैर-भाव त्यागकर एकत्र उपस्थित थे।
समवसरण के मध्य में एक गन्धकुटी थी, जिसमें कमलाकार स्वर्ण-सिंहासन पर भगवान महावीर विराजमान थे। सर्वज्ञ केवली होने के कारण उनका परिशुद्ध शरीर आत्मचेतना ते अपूर्ण था, इसीलिए वे सिंहासन से ऊपर, वायुमण्डल में अधर विराजमान थे। मगवान महावीर की दिव्यध्वनि सुनने के लिए आगन्तुक ऋषि, मुनि, साधु, श्रावक, देवी-देवतादि सभी आतुर थे। सबने तीर्थंकर महावीर की वन्दना की, किन्तु उनके श्रीमुख से वाणी प्रस्फुटित नहीं हुई। अवधिज्ञान से इन्द्र ने जाना कि भगवान महावीर के दिव्य विचारों को आत्मसात् कर उन्हें संसारी जीवों तक हस्तान्तरित करने के लिए एक सुयोग्य संघनायक गणधर को आवश्यकता है।
(3) इन्द्र का गौतम ब्राह्मण के यहाँ गमन, मौतम द्वारा महावीर प्रभु की स्तुति एवं सम्यकुदर्शन-इन्द्र ने अपने दिव्य ज्ञान से यह संकेत प्राप्त किया कि मगध देश के गौर ग्राम के पण्डित बसुभूति का ज्येष्ठ पुत्र 'इन्द्रभूति गौतम' भगवान महावीर का प्रथम गणधर होमा। उसे यहाँ लाना चाहिए, अतः इन्द्र ने बटू का रूप धारण किया और ताइपत्र पर एक श्लोक लिखकर इन्द्रभूति गौतम से उसका अर्थ पूछा
"त्रैकाल्यं द्रव्यषट्कं नवपदसहितं जीव-षट्काय लेश्याः ।" उक्त श्लोक का अर्ध इन्द्रभूति गौतम की समझ में नहीं आया। अतः या अपने 500 शिष्यों के साथ बटु का अनुसरण करते-करते विपुलाचल पर भगवान महावीर के समवसरण में आया। तीर्थंकर महावीर के दर्शन मात्र से उसे दिव्यज्ञान प्राप्त हुआ। उसे उच्च कोटि का मनःपर्ययज्ञान एवं बुद्धि, औषधि, अक्षय, ओज, रस, तप और विक्रिया नामक सात ऋद्धियाँ उपलब्ध हुई। इस तरह से महापण्डित, महाज्ञानी, इन्द्रभूति गौतम भगवान महावीर के प्रथम शिष्य और ज्येष्ठ गणधर हुए। उन्होंने तीर्थंकर महावीर की दिव्यध्वनि का सूक्ष्म आशय आत्मसात कर उसे नोकभाषा में, H2 :: हिन्दी के महाकाव्यों में चित्रित भगवान महावीर