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सर्प बनकर एक वृक्ष के नीचे बैठ गया और फुंकारने लगा। दूसरे सभी बालक भयभीत हो गये, परन्तु कुमार ने उसका दमन कर दिया
"स-वेणु जैसा अहि- तुण्ड गारुडी, करे वशीभूत भुजंग-राज को किया उसी भाँति जिनेन्द्र ने उसे, नितान्त काकोल-विहीन दीन भी।" (वही, पृ. 266) "उसी घड़ी से जग में जिनेन्द्र की, सुकीर्ति फैली जन - चित्त मोहिनी, न नाम से केवल वर्द्धमान के सभी महावीर पुकारने लगे ।" (वही, पृ. 267 )
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राजकुमार की बाल्यावस्था में अनेक ऐसी घटनाएँ हुईं जो वास्तव में चमत्कारपूर्ण कही जा सकती हैं। एक घटना और है, वह नागदेव एक बालक बनकर अन्य बालकों के साथ खेल में मिल गया तथा कुमार को अपनी पीठ पर बिठाकर दौड़ने लगा । दौड़ते-दौड़ते उसने विक्रिया से अपने शरीर को उत्तरोत्तर बढ़ाना शुरू कर दिया। वीरकुमार उस देव की चालाकी को समझ गये। उन्होंने उसके पीठ पर जोर से एक मुट्टी मारी, जिससे उस छमवेशी का गर्व नष्ट हो गया। उसने अपना रूप संकुचित किया और अपना यथार्थ रूप प्रकट करके उनसे क्षमा-याचना की और कहने लगा
"भगवन्, मैं इन्द्र द्वारा प्रेरित एक देव हूँ। मैं आपकी परीक्षा लेने भेजा गया था। अब प्रशंसक बनकर जा रहा हूँ। आप सत्यमेव महावीर हैं।” त्रिलोक में उनकी स्तुति होने लगी । लेकिन महावीर इस प्रशंसा से गर्वित न होकर सदैव आत्मचिन्तन में मग्न रहते थे ।
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दसवाँ सर्ग - युबक महावीर का आत्मचिन्तन
दसवें सर्ग में ऋजुबालिका नदी का वर्णन, सन्ध्या- समय का वर्णन, श्मशान दृश्य, सान्ध्य तारा आदि प्रकृति वर्णन के प्रसंगों का चित्रण है। इनके साथ ही बर्द्धमान के आत्मचिन्तन, जीवन-विमर्श तथा चैराग्यमूलक प्रवृत्तियों के अनुसार प्रसंगों का चित्रण है ।
ग्यारहवाँ सर्ग - वैराग्य भाव
युवक वर्द्धमान की वैराग्यभावना ज्ञान से निःसृत थी। वे करुणा की मूर्ति थे। वे सोचते हैं
" दया महा उत्तम वस्तु विश्व में, दया सभी पै करना स्व-धर्म है, दया बनाती जग सह्य जीब को, दया दिखाना अति उच्च कर्म है । "
(वही, पृ. 295)
भगवान महावीर का चिन्तन दया पर आधारित है।
आधुनिक हिन्दी महाकाव्यों में वर्णित महावीर चरित्र [5]