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________________ **** शानाकुशम् पुण्य ***** की प्रेरणा पापकर्मपरित्यज्य, पुण्यकर्मसमाचरेत् । भावयेदशुभं कर्म त्यक्त्वा योगी समाचरेत् ॥१८॥ , अन्वयार्थ : (पापकर्म) पापकर्म को (परित्यज्य) छोड़कर (पुण्यकर्म) पुण्यकर्म का {समाचरेत्) आचरण करें। (पुण्यकर्म) पुण्यकर्म की (भावयेत्) भावना करके (योगी) योगी (अशुभम् ) अशुभ (कर्म) कर्म को (त्यक्त्वा) छोड़ कर ( समाचरेत् ) आचरण करें। अर्थ : पापकर्म का त्याग करके पुण्यकर्म का आचरण करना चाहिये। योगी को चाहिये कि वह पुण्यदर्भ की भावना करते हुए अशुभ कर्म को छोडें। भावार्थ : अनादिकाल से कर्ममलिमस आत्मा चतुर्गतिरूप संसार में परिभ्रमण कर रहा है। स्व-स्वभाव की आराधना से च्युत हो जाने के कारण आत्मा पर के द्वारा उत्प्रेरित हो अपने स्वत्व को खो रहा है। मैं अनन्त सुखों का पिण्ड हूँ इस बोध से रहित हो जाने के कारण वह पर में ही सुख को खोज रहा है। परद्रव्य को अपना निजरूप मान कर वह उसमें इतना आसक्त हो रहा है कि पर से भिन्न भी मेरा अस्तित्व है, ऐसी समझ उसमें उत्पन्न नहीं हो पायी है। यही कारण है कि वह सदैव दुःख भोग रहा है। निज स्वात्मतत्त्व से विमुख होकर विषय कषायों में लीन हो जाना, स्व-पर के परिचय की अनभिज्ञता से पर को ही स्व मान लेना अथवा स्व पर की भेदानुभूति से रहित होकर पर में अनुरक्त हो जाना रूप आत्मा की वैभाविक परिणति है, उससे जो उत्पन्न होता है वह पाप है पाप को परिभाषित करते हुए आचार्य श्री भास्करनन्दि ने लिखा पाति रक्षत्यात्मानमस्मात् शुभ परिणामादिति पापं मतम् । *************** ४९
SR No.090187
Book TitleGyanankusham
Original Sutra AuthorYogindudev
AuthorPurnachandra Jain, Rushabhchand Jain
PublisherBharatkumar Indarchand Papdiwal
Publication Year
Total Pages135
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size3 MB
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