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________________ ******** ******** कालवश! ******* (सखबोध तत्त्वार्थवृत्ति - ६/३)* अर्थात् : जो आत्मा को शुभ परिणामों से बचावे यह पाप है। - इसका अर्थ यह हुआ कि जो आत्मा को आत्महितकर कार्यों से *दूर रखे वह है पाप। जो आत्मा को आत्मतत्त्व के ध्यान से विमुख कर * दे वह है पाप। जो आत्मा को कर्म कलंक से कलंकित कर दे वह है पाप। जो आत्मा को अपना परिचय प्राप्त न करने दे वह है पाप। जो आत्मा को सन्मार्गगामी न बनने दे वही है पाप अथवा जो आत्मा को मोक्ष ज्ञाने से रोके वह है पाप। यहा पाप का परिचय है। * पुण्य की परिभाषा करते हुए आचार्य श्री भास्करनन्दि ने लिखा *है - *कर्मणः स्वातन्त्र्यविवक्षायां पुनात्यात्मानं प्रीणयतीति पुण्यम्। (सुखबोध-तत्त्वार्थवृत्ति - ६/३) *अर्थात् : कर्म की स्वातन्त्र्य विवक्षा में जो आत्मा को पवित्र करे वह ** पुण्य है। यहाँ पर अशुभकर्मों को तजने का उपदेश दिया है। ग्रंथकार कहते हैं कि पुण्यकर्म की भावना करते हुए आत्मा को अशुभकर्मों का *त्याग करना चाहिये। * शंका : आचार्य श्री कुन्दकुन्द देव का मन्तव्य है - * सौवपिणयं पि णियलं बंधदि कालायसं पि.जह पुरिसं। बंधदि एवं जीवं सुहुमसुहं वा कदं कम्म।। (समयसार - १४६) अर्थात् : जैसे लोहे की बेड़ी पुरुष को बांधती है और सुवर्ण की बेड़ी भी * पुरुष को बांधती है, उसीप्रकार किया हुआ शुभाशुभ कर्म भी जीव को * बांधता है। * आचार्य श्री योगीन्दुदेव ने यही आशय योगसार (७२) के * माध्यम से व्यक्त किया है। संक्षिप्ततः यह अर्थ हुआ कि शुभ और अशुभ दोनों ही कर्मबन्ध के कारण हैं। अतः दोनों समानरूप से त्याज्य हैं। फिर यहाँ पुण्य को ग्राह्य क्यों माना गया ? *समाधान : जब शुद्धस्वभाव अपेक्षित होता है, तब शुभ व अशुभ कर्म **********५० **********
SR No.090187
Book TitleGyanankusham
Original Sutra AuthorYogindudev
AuthorPurnachandra Jain, Rushabhchand Jain
PublisherBharatkumar Indarchand Papdiwal
Publication Year
Total Pages135
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size3 MB
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