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________________ ******** बानांकुशम् (तत्त्वभावना २३) अर्थात्: मेरा कौनसा काल हैं ? अब मेरा कौनसा जन्म है ? वर्तमान में मैं किस विधि से बर्ताव करू ? हम इसप्रकार की सर्व विवेकबुद्धि को न करते हुए तथा आत्मा के हितकर आचरण को दूर ही रखते हुए जगत् के (संसार समुद्र के ) भंवर में पटकने वाले आचरणों को निरन्तर करते रहते हैं। जो आत्मतत्त्व का विचार करता है वही जीव विवेक से संपन्न है। आत्मतत्त्व के विचार से हीन सर्वथा मूढबुद्धि जीव आत्मोन्नति के पावन पथ पर कदम ही नहीं रख पाते। वे ऐसा कोई भी आचरण नहीं करते, जिससे कि आत्मा जन्म, जरा, मृत्यु के संताप को नष्ट करके शाश्वत सौख्य को प्राप्त कर सके। वे पयायासक्त निशियाम विषय कषायों के गहन उन में भटकते रहते हैं। महामोह उनके ज्ञानचक्षुओं को मूंद देता है, जिससे वे नाना अनर्थकारी क्रियाएँ करने लगते हैं। सन्मार्ग से उपरत होकर वे संसारवर्धक बहुविध अनुष्ठानों को रुचिपूर्वक करते हैं। वे स्वात्मा को सन्तापित करने वाले आरंभ, परिग्रहादि कार्यों से द्रव्यकर्मों को बांध कर संसार सागर में उन्मज्जन- निमज्जन करते हुए जन्म और मरण की सन्तति को प्राप्त करते रहते हैं। सम्पूर्ण कर्मों को दूर करके जब यह आत्मा निज (आत्मतत्त्व में रममाण हो जाता है, तब वह परमात्मा बन जाता है। मिथ्यात्व अविरति, प्रमाद, कषाय और योग ये पाँच कर्मप्रत्ययों का दूर होना आवश्यक है। कर्मप्रत्ययों का निस्तारण करने का एकमात्र उपाय हैं आत्मतत्त्व का आचरण यानि ध्यान । अतः परमात्मपदेच्छु के लिए ध्यान ही सर्वथा उपादेय है। शंका : ध्यान क्या है? . समाधान आत्मा का स्वरूप ज्ञान और दर्शन है। आत्मा का आत्मस्वरूप में अविचल हो जाना ध्यान है। यह परमध्यान ही मोक्ष का कारण है। कर्म और नोकर्मरूप द्रव्य का परित्याग करने वाला ध्यायक ही अपना उपयोग आत्मकेन्द्रित कर सकता है। जिसने अपने साकार तथा अनाकार इन दो उपयोगों को अपने आप में लगा लिया है, वह परमात्मा बन जाता है। ४८
SR No.090187
Book TitleGyanankusham
Original Sutra AuthorYogindudev
AuthorPurnachandra Jain, Rushabhchand Jain
PublisherBharatkumar Indarchand Papdiwal
Publication Year
Total Pages135
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size3 MB
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