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________________ *** ज्ञानांकुशम ******** है । वह केन्द्र से परिधि की ओर आत्मा को ले जाती है। उसके कारण आत्मा अपने स्वभाव को विस्तृत कर देता है। अबतक चिन्ता रहती है . तबतक आत्मा स्वभावाभिमुख नहीं बन पाता। स्वभाव से दूर होने के कारण से आत्मा का ज्ञान आवृत्त हो जाता है। परद्रव्य सम्बन्धी चिन्ता राग और द्वेष की निर्मात्री है। जहाँ राम और द्वेष होता है, वहाँ नियम से द्रव्यकर्म का बन्ध होता है। द्रव्यकर्म आठ प्रकार के होते हैं, जिसमें एक ज्ञानावरण नामक कर्म भी हैं। यह कर्म ज्ञान गुण पर आच्छादन डालता है। चिन्ता के कारण ज्ञान आवृत्त होता है। अतः कारण में कार्य का उपचार कर के कहा है कि चिन्तया नश्यते ज्ञानम् । शंका: चिन्ता से यदि ज्ञान नष्ट होता है, तो आत्मा भी नष्ट हो आयेगा? समाधान: ज्ञान आत्मा का परमस्वभाव है। स्वभाव का नाश हो जाने पर स्वभाव के धारक द्रव्य का भी नाश हो जायेगा। द्रव्य का नाश होना तो त्रिकाल में भी संभव नहीं है। अतः यहाँ नश्यते शब्द से ज्ञान का पूर्ण उच्छेद न लेकर ज्ञान को आवृत्त करता है ऐसा अर्थ करना चाहिये । चिन्तया नश्यते बलम् । चिन्ता से बल नष्ट होता है। चिन्तित व्यक्ति जितना भी भोजन करता है, वह भोजन चिन्ता के भेट चढ़ जाता है। वह जो कुछ भी खाता है, उससे पोषक तत्त्व उत्पन्न नहीं हो पाते। यही कारण है कि चिन्ता करने वाले जीवों का शरीर शक्तिहीन हो जाता है। बल नष्ट होने का एक और कारण है कि चिन्ता से भूख की कमी हो जाती है। फलतः चिन्तित व्यक्ति कुछ ग्रहण नहीं कर पाता जब कि चिन्ता उसके मस्तिष्क से अधिक कार्य करवाती है। उस कार्य के लिए मस्तिष्क को अत्यधिक ऊर्जा की आवश्यकता पड़ती है। मस्तिष्क ऊर्जा शरीर से ग्रहण करने लगता है। जब शरीर को आवश्यक ऊर्जा नहीं मिल पाती, तो वह अशक्त हो जाता है। जिसप्रकार अग्नि हरे भरे वृक्षों के समूह से युक्त महावन को क्षणभर में विनष्ट कर देती है, उसीप्रकार चिन्ता मनुष्य के ओज, तेज और बल को नष्ट कर देती है। चिन्ता आत्मविश्वास को नष्ट कर देती *******************
SR No.090187
Book TitleGyanankusham
Original Sutra AuthorYogindudev
AuthorPurnachandra Jain, Rushabhchand Jain
PublisherBharatkumar Indarchand Papdiwal
Publication Year
Total Pages135
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size3 MB
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