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________________ ******** igen ******* है, फलतः कार्यशक्ति स्वयमेव ही नष्ट हो जाती है। चिन्तया नरयते बुद्धि / चिन्ता से बुद्धि नष्ट होती है। चिन्ता ज्ञानतन्तुओं को उत्तेजित करती है। फलतः स्नायुमण्डल, ज्ञानवाही तन्त्रियाँ एवं कार्यवाहक नसें अपना कार्य व्यवस्थित ढंग से नहीं कर पाती। उससे बुद्धि का नाश होकर पागलपन का दौरा आने लगता है। : जिसप्रकार दीमक सुन्दर पुस्तक को चाट जाती है, उसीप्रकार चिन्ता विशाल बुद्धि को नष्ट करती है ननोचिकित्सक ऐसा मानते हैं कि जो व्यक्ति निरन्तर चिन्ता में मग्न रहता है, उसके पागलपन की संभावनाएँ बढ़ जाती है। डाक्टरी परीक्षणों में यह सिद्ध हुआ है कि चिन्ता सोचनेविचारने की शक्ति को पूर्णतया समाप्त कर देती है। शंका बुद्धि और ज्ञान में क्या अन्तर है ? : समाधान यद्यपि दोनों को एकार्थक माना गया है, तथापि यह नियम - • है कि शब्दभेदे धुवार्थ भेदो इति (शब्दभेद होने पर अर्थभेद अवश्य होता है। बुद्धि मन का कार्य है व ज्ञान आत्मा का गुण है। बुद्धि ज्ञान की ही क्षायोपशमिक अवस्था है। यह इन दोनों में प्रमुख अन्तर है। में व्याधिर्भवति चिन्तया । चिन्ता से व्याधि होती है। चिन्ता तीव्र हलाहल है। जैसे हलाहल की एक बूंद भी मुख जाने पर वह मांस को सोखती है, रक्त को विषाक्त बनाती है तथा प्राणघात करती है। उसीतरह चिन्ता का प्रभाव शरीर पर पड़ता है और अन्त में प्राणों का घात हो जाता है। अतः शरीर के लिए चिन्ता तीव्र विष के समान होती है। चिकित्साशास्त्रियों का कथन है कि चिन्ता से ग्रस्त व्यक्ति का गरम हुआ रक्त अनेक दोष उत्पन्न करता है। यथा भूख न लगना, भारी-भारी रहना, निद्रा का न आना आदि। सिर चिन्ता करने का परिणाम यह होता है कि - १. चेहरा मुरझा जाता है। २. मन उदास हो जाता है। ३. शारीरिक शक्ति क्षीण होने लगती है। ९३
SR No.090187
Book TitleGyanankusham
Original Sutra AuthorYogindudev
AuthorPurnachandra Jain, Rushabhchand Jain
PublisherBharatkumar Indarchand Papdiwal
Publication Year
Total Pages135
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size3 MB
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