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________________ ******* ज्ञानांकुशम् ****** चिन्ता के दुष्परिणाम चिन्तया नश्यते ज्ञानं, चिन्तया नश्यते बलम् । चिन्तया नश्यते बुद्धिर्व्याधिर्भवति चिन्तया ॥ ३४ ॥ अन्वयार्थ : (चिन्तया) चिन्ता से (ज्ञानम्) ज्ञान (नश्यते) नष्ट होता है (चिन्तया) चिन्ता से (बलम्) बल (नश्यते) नष्ट होता है (चिन्तया) चिन्ता से (बुद्धिः) बुद्धि (नश्यते) नष्ट होती है (चिन्तया) चिन्ता से ( व्याधिः } व्याधि (भवति) होती है। अर्थ : चिन्ता से ज्ञान, बल और बुद्धि नष्ट हो जाती है तथा व्याधि होती है। भावार्थ : चिन्ता शब्द का अंग्रेजी अनुवाद है वरी । वरी का अर्थ गला घोटना भी होता है। अतः चिन्ता का अर्थ हुआ जिसतरह कोई कुत्ता किसी शिकार के गले को अपने दांतों से भींचता है, बार-बार झकझोरता है, उसीतरह जो जीव के साथ करे उस वृत्ति को चिन्ता कहते हैं। भय. अज्ञान, अपर्याप्त प्रयास असमर्थता और भ्रम ये सब चिन्ता के कारण हैं। चिन्ता एक मानसिक रोग है। चिन्ता की भयंकरता को अभिव्यक्त करते हुए नीतिकारों ने लिखा हैं कि चिता चिन्ता समाख्याता, बिन्दूमात्र विशेषता । चिता दहति निर्जीवं, चिन्ता जीवं दहत्यहो । । - : अर्थात् चिता और चिन्ता में एक बिन्दु की ही विशेषता है। चिता तो निर्जीव शरीर का दहन करती है और चिन्ता सजीव को जलाती है। चिन्ता का अर्थ है दुःखी होना, अनावश्यक विचार करना, अपने कल के हित के लिए आज ही सोच-विचार में (व्यर्थ ) घुल जाना आदि। चिन्तया नश्यते ज्ञानम् । चिन्ता से ज्ञान नष्ट होता है। ज्ञान आत्मा का निज गुण है। जब आत्मा स्वाभिमुख होता है तब इस गुण की अभिव्यक्ति होती है। चिन्ता आत्मा की बहिर्मुखी प्रवृत्ति *******
SR No.090187
Book TitleGyanankusham
Original Sutra AuthorYogindudev
AuthorPurnachandra Jain, Rushabhchand Jain
PublisherBharatkumar Indarchand Papdiwal
Publication Year
Total Pages135
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size3 MB
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