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________________ ग्रन्थराज श्री पञ्चाध्यायी प्रश्न ६९ - शुद्ध द्रव्यार्थिक नय का विषय क्या है ? उत्तर - जो द्रव्य का अभेद रूप ज्ञान करावे जैसे भेद रूप से न द्रव्य है, न गुण है, न पर्याय है, न उत्पाद है, न व्यय है न धौव्य है, एक अखण्ड सत् अनिर्वचनीय है अथवा जो द्रव्य है वही गुण है, वही पर्याय है, वही उत्पाद है, वही व्यय है, वही धौव्य है अर्थात् एक अखण्ड सत् है ।। (८,८४,८८,२१६, २४७, ४४७ प्रथम पंक्ति, ७५० प्रथम पंक्ति) प्रश्न ७० - प्रमाण का विषय क्या है? उत्तर जो द्रव्य का सामान्यविशेषात्मक जोड़ रूप ज्ञान करावे जैसे जो भेद रूप है वही अभेदरूप है। जो गुण पर्याय वाला है वही गुण पर्याय वाला नहीं भी है। जो उत्पाद व्यय धौव्य युक्त है वही उत्पाद व्यय धौव्य युक्त नहीं भी है। जो द्रव्य, गुण पर्याय वाला है वही द्रव्य, उत्पाद व्यय धाव्य युक्त है तथा वही द्रव्य, अनिर्वचनीय है। यह एक साथ दोनों कोटि का ज्ञान करा देता है। और दोनों विरोधी धर्मों को द्रव्य में सापेक्षपपने से, मैत्रीभाव से, अविरोध रूप से सिद्ध करता है । (२६१ प्रथम पंक्ति ७४८ तथा ७५० की दूसरी पंक्ति) प्रश्न ७१ - द्रव्य दृष्टि और पर्याय दृष्टि का दूसरा अर्थ क्या है? उत्तर - वस्तु जैसे स्वभाव से स्वतःसिद्ध है वैसे ही वह स्वभाव से परिणमन शील भी है। उस स्वभाव को द्रव्य, वस्तु, पदार्थ, अन्वय, सामान्य आदि कहते हैं । परिणमन स्वभाव के कारण उसमें पर्याय अवस्था परिणाम की उत्पत्ति होती है। जो दृष्टि परिणामको गौण करके स्वभावको मुख्यता से कहे उसे द्रव्यदृष्टि, अन्वयदृष्टि, वस्तु दृष्टि, निश्चय दृष्टि, सामान्य दृष्टि आदि नामों से कहा जाता है और जो दृष्टि स्वभाव को गौण करके परिणाम को मुख्यता से कहे उसे पर्याय दृष्टि, अवस्था दृष्टि, विशेष दृष्टि आदि नामों से कहते हैं। जिसकी मुख्यता होती है सारी वस्तु उसी रूप दीखने लगती है।६५,६६,६७,१९८) सार तत्त्व* यों तो आत्मा अनन्त गुणों का पिण्ड है पर मोक्षमार्ग की अपेक्षा तीन गुणों से प्रयोजन है। ज्ञान, श्रद्धान और चारित्र। सबसे पहले जब जीव को हित की अभिलाषा होती है तो ज्ञान से काम लिया जाता है । पहले ज्ञान द्वारा पदार्थ का स्वरूप, उसका लक्षण तथा परीक्षा सीखनी पड़ती है । पदार्थ सामान्यविशेषात्मक है । अत: पहले सामान्य पदार्थ का ज्ञान करना होता है फिर विशेषका, क्योंकि जो वस्तु सत् रूप है वही तो जीव रूप है। सामान्य वस्तुको सत् भी कहते हैं। सो पहले आपको सत् का परिज्ञान कराया जा रहा है । सत् का आपको अभेदरूप, भेदरूप, उभय रूप हर प्रकार से ज्ञान कराया। इसको कहते हैं ज्ञानदृष्टि या पण्डिताई की दृष्टि । इससे जीव को पदार्थ ज्ञान होता चला जाता है और वह ग्यारह अंग तक पढ़ लेता है पर मोक्षमार्गी रंचमात्र भी नहीं बनता । यह ज्ञान मोक्षमार्ग में कब सहाई होता है जब जीव का दूसरा जो श्रद्धा गुण है उससे काम लिया जाय अर्थात् मिध्यादर्शन से सम्यग्दर्शन उत्पन्न किया जाय । वह क्या है ? अनादिकाल की जीव की पर में एकत्वबुद्धि है। अहंकारममकार भाव है। अर्थात् यह है सो मैं हूँ और यह मेरा है तथा पर में कर्तृत्वभोक्तृत्व भाव अर्थात् मैं पर की पर्याय फेर सकता हूँ और मैं पर पदार्थ को भोग सकता हूँ। इसके मिटने का नाम है सम्यग्दर्शन | वह कैसे मिटे? वह जब मिटे जब आपको यह परिज्ञान हो कि प्रत्येक पदार्थ स्वतन्त्र सत् है। अनादिनिधिन है। स्वसहाय है। उसका अच्छा या बरा परिणमन सोलह आने उसी के आधीन है। जब तक स्वतन्त्र सत् का ज्ञान न हो तब तक घर में एकत्व, कर्तृत्व, भोक्तृत्व भाव न किसी का मिट सकता है न मिटा है। इसलिये पहले ज्ञानगुण के द्वारा सत् का ज्ञान करना पड़ता है क्योंकि वह ज्ञान सम्यग्दर्शन में कारण पड़ता ही है। पर व्याप्ति उधर से है इधर से नहीं है अर्थात सब जानने वालों को सम्यग्दर्शन होही ऐसा नहीं है किन्तु जिनको होता है उनको सत् के ज्ञानपूर्वक ही होता है। इससे पता चलता है कि ज्ञानगुण स्वतन्त्र है और श्रद्धा गुण स्वतन्त्र है। दृष्टान्त भी मिलते हैं। अभव्यसेन जैसे ग्यारह अंग के पाठी श्रद्धान करने से नरक में चले गये और श्रद्धा करने वाले अल्पश्रुती भी मोक्षमार्गी हो गये। इसलिये पण्डिताई दूसरी चीज है। मोक्षमार्गी दूसरी चीज है। बिना मोक्षमागी हए कोरे ज्ञान से जीव का रंचमात्र भी भला नहीं है। पण्डिताई की दृष्टि तो भेदात्मक ज्ञान, अभेदात्मक ज्ञान और उभयात्मक ज्ञान है सो आपको करा ही दिया। इस लेख में पहले निश्चयाभासीका खण्डन किया है फिर व्यवहाराभासीका खण्डन किया है फिर 'सम्यग्दर्शनज़ानचारिबाणि मोक्षमार्ग:' समझाया है। ।
SR No.090184
Book TitleGranthraj Shri Pacchadhyayi
Original Sutra AuthorAmrutchandracharya
Author
PublisherDigambar Jain Sahitya Prakashan Mandir
Publication Year
Total Pages559
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size18 MB
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