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________________ प्रथम खण्ड/प्रथम पुस्तक जैसे जो श्रद्धा गुण से काम न लेकर केवल मात्र ज्ञान से काम लेते हैं वे कोरे पण्डित रह जाते हैं और मोक्षमार्गी नहीं बन पाते उसी प्रकार जो श्रद्धा से काम न लेकर पहले चारित्र से काम लेने लगते हैं और बाबाजी बनने का प्रयत्न करते हैं वे केवल मान का पोषण करते हैं। मोक्षमार्ग उनमें कहाँ जब तक परिणति स्वरूप को न पकड़े तब तक लाख संयम उपवास करे-उनसे क्या ? श्री समयसारजी में कहा है कोरी क्रियाओं को करता मर भी जाय तो क्या? अरे यह तो भान कर कि शुद्ध भोजन की, पर पदार्थ की तथा शुभ या अशुभ शरीर की क्रिया तो आत्मा कर ही नहीं सकता। इनमें तो न पाप है, न पुण्य है, न धर्म है। यह तो स्वतन्त्र दूसरे द्रव्य की क्रिया है। अब रही शुभ विकल्प की बात वह आश्रव तत्त्व है,बंध है, पापही सोचतोतकर क्यारहा है और हो क्या रहा है। भाई जब तक परिणति स्वरूप को न ग्रहे ये तो पाखण्ड है। कोरा संसार है। पशुवत क्रिया है। छह ढाले में रोज तो पढ़ता है 'मुनिव्रतधार अनन्त बार ग्रीवक उपजायो' वह तो शुद्ध व्यवहारी की दशा कही । यहाँ तो व्यवहार का भी पता नहीं और समझता है अपने को मोक्ष का ठेकेदार या समाज में महान ऊंचा। मोक्षमार्ग में नियम है कि विकल्प (राग)संसार है और निर्विकल्प (वीतरागता) मोक्षमार्ग है। अब वह राग कैसे मिटे और वीतरागता कैसे प्रगट हो? उसका विचार करना है। देखिये विषय कषाय का राग तो है ही संसार कारण। इसमें तो द्वैत ही नहीं है। जिनका पिण्ड अभी उससे जरा भी नहीं छूटा वे तो करेंगे ही क्या? ऐसे अपात्रों की तो यहाँ बात ही नहीं है। यहाँ तो मुमक्ष का प्रकरण है। सो उसे कहते हैं कि भाई यह तो ठीक है कि वस्तु भेदाभेदात्मक ही है पर भेद में यह खराबी है कि उसका अविनाभावी विकल्प उठता है और वह आश्रव बन्ध तत्त्व है। इसलिये यह भेद को विषय करने वाली व्यवहार नय तेरे लिये हितकर नहीं है। अभेदको बतलाने वाली जो शुद्ध द्रव्यार्थिक नय है उसका विषय वचनातीत है। विकल्पातीत है। पदार्थ का ज्ञान करके संतुष्ट होजा। भेद के पीछे मत पड़ा रह। यह भी विषय कषाय की तरह एक बीमारी है। यह तो केवल अभेद वस्तु पकड़ाने का साधन था।सो वस्तु तूने पकड़ ली।अब व्यवहार से ऐसा है''व्यवहार से ऐसा है' अरे इस रागनी को छोड़ और प्रयोजन भूत कार्य में लगा वह प्रयोजनभूत कार्य क्या है? सुन ! हम तुझे सिखा आये हैं कि प्रत्येक सत् स्वतन्त्र है। उसका चतुष्टय स्वतन्त्र है इसलिए पर को अपना मानना छोड़ । दूसरे जब वस्तु का परिणमन स्वतन्त्र है तो तु उसमें क्या करेगा? अगर वह तेरे की हुयी परिणमेगी तो उसका परिणमन स्वभाव व्यर्थ हो जायेगा और जो शक्ति जिसमें है ही नहीं वह दूसरा देगा भी कहाँ से ? इसलिये मैं इसका ऐसा परिणमन कराएं या यह यूं परिणमे तो ठीक । यह पर की कर्तृत्व बुद्धि छोड़ । तीसरे जब एक द्रव्य दूसरे को छूभी नहीं सकता तो भोगना क्या ? अत: यह जो पर के भोग की चाह है इसे छोड़। यह तो नास्ति का उपदेश है किन्तु इस कार्य की सिद्धि 'अस्ति' से होगी और वह इस प्रकार है कि जैसा कि तझे सिखाया है तेरी आत्मा में दो स्वभाव हैं एक त्रिकाली स्वभाव-अवस्थित,दूसरा परिणाम पर्याय धर्म । अज्ञानी जगत तो अनादि से अपने को पर्याय बुद्धि से देखकर उसी में रत है। तू तो ज्ञानी बनना चाहता है। अपने को त्रिकाली स्वभाव रूप समझ ! वैसा ही अपने को देखने का अभ्यास कर। यह जो तेरा उपयोग पर में भटक रहा है। पानी की तरह इसका रुख पलट। पर की ओर न जाने दे। स्वभाव की और इसे मोड़ा जहाँ तेरी पर्याय ने पर की बजाये अपने घर को पकड़ा और निज समुद्र में मिली कि स्वभाव पर्याय प्रगट हुई। बस उस स्वभाव पर्याय प्रगट होने का नाम ही सम्यग्दर्शन है। तीन काल और तीन लोक में इसकी प्राप्ति का दूसरा कोई उपाय नहीं है। इसके होने पर तेरा पूर्व का सब ज्ञान सम्यक होगा। ज्ञान का वलन (बहाओ, झुकाओ, रुख) पर से रुक कर स्व में होने लगेगा। ये दोनों गुण जो अनादि से संसार के कारण बने हुये थे फिर मोक्षमार्ग के कारण होंगे। ज्यों-ज्यों ये पर से छट कर स्वघर में आते रहेंगे त्यों-त्यों उपयोग की स्थिरता आत्मा नाम ही चरित्र है। और वह स्थिरता शनैः शनैः पूरी होकर तू अपने स्वरूप में जा मिलेगा ( अर्थात् सिद्ध हो जायेगा)। सद्गुरुदेव की जय ! औं शान्ति । हिन्दी टीकाकार का परिचय (हरिगीत) शब्द अपनी योग्यता से ग्रंथरूप में परिणये । विद्वान सरना रूप में रमता न उसने ये रचे ॥ में * यह भाव श्री प्रवचनसार गाथा २३२ की टीका से लिया है।
SR No.090184
Book TitleGranthraj Shri Pacchadhyayi
Original Sutra AuthorAmrutchandracharya
Author
PublisherDigambar Jain Sahitya Prakashan Mandir
Publication Year
Total Pages559
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size18 MB
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